चिंतन- मनन-दर्शन-सन्देश
♻
हमारी सोच♻
सामान्य चिंतन का ही परिणाम है। जिस चिंतन से यह उपजा है उसे संक्षेप में यहाँ लिख रहा हूँ :
मस्तिष्क में कई प्रकार की विचारो की शृंखलाएं चलती ही रहती है। सचमुच जन्म से आज ही नहीं, अभी तक।
आइये इसे अध्यात्म के दृष्टि कोण से देखे। तत्व चिंतामणि में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने बताया है - मानव शरीर के स्थूल, सूक्ष्म शरीर में भेद से अन्तः करण होता है जिसमे सम्मिलित है मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। सबसे ऊपर है चेतन आत्मा। जिसके कारण हम जीवंत है।
चिंतन और मनन की प्रयोगशाला है -अनतःकरण। यहाँ बाहर-भीतर के संसार का अपने अपने अनुसार मंथन चलता है। मन बाहर की सूचना अंदर देता है, बुद्धि उसमें से अच्छे- बुरे की छटनी करके बताती है वो भी मन को एक एग्झामिनर की तरह। मन उसे माने या न माने। चित्त कम्प्यूटर की हार्ड -ड्राइव की तरह रिकार्ड करता है। उसको पता है बुद्धि ने क्या काम किया, मन ने क्या किया और क्या नहीं किया। मित्रों यह जो मैं आपको बता रहा हूँ यह भी इसी तरह की एक प्रक्रिया का नमूना ही है, क्योंकि यह सब जस का तस बयां कर रहा हूँ।
चिंतन : मन , बुद्धि और चित्त में विचारों के मंथन के बाद जो नवनीत निकालने की प्रक्रिया है वही चिंतन है। सोचिये मंथन एक बार मथानी को हिला देने से नवनीत नहीं बनता वैसे ही सोचने की एक बारगी प्रक्रिया से नहीं बार बार पूरे परिदृश्य का अवलोकन करने से विषय का सही अंदाजा हो सकता है। गीता में एक शब्द आया है "अनुदर्शन" अर्थात किसी विषय को बार बार देखना। यही चिंतन है।
मनन : चिंतन सम्पूर्ण विषय के विभिन्न बिन्दुओं को सम्यक रूप से देखने से होता है और तब उनमे से मुख्य-मुख्य बिन्दुओं को पकड़- पकड़ कर उनको व्यवहारिक रूप से समन्वय स्थापित करना ही मनन है। मनन से मंथन का पर्यवसान है अर्थात मनन से ही माखन मिलेगा।
दर्शन: भारतीय ऋषि परंपरा और संस्कृति के मूल में विश्व बंधुत्व के महीन सूत्र है जो अपने जीवन के साथ समस्त जगत को कल्याणमय देखना चाहते हैं। जीवन को आनंदमय जीने की कला इसमें भरी पड़ी है। वेद पुराण, उपनिषद, मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि आदि हमारे जीवन की आचार-संहिताएं हैं। पाश्चात्य केवल जगत के सुख का इंतजाम करता है जबकि हमारी संस्कृति बाहर से अधिक भीतर की ओर देखती है।
सन्देश : सन्देश जो हमें महापुरुषों ने दिए हो, सन्देश वो जो हमारे भीतर चिंतन और मन से जन्मे हों, जो हमें आत्मिक उन्नति देते हों और जो विश्व कल्याण की भावना से भरे हों केवल वही काम के है। असल की नकल करना कोई बुरा नहीं है लेकिन विवेक जागृत रहे।
11/08/2015, 10:47 - soniwwz@gmail.com: संशोधित----!!
♻चिंतन- मनन-दर्शन-सन्देश ♻
हमारी सोच सामान्य चिंतन का ही परिणाम है। इसी चिंतन से जो कुछ उपजा है उसे संक्षेप में यहाँ लिख रहा हूँ :
मस्तिष्क में कई प्रकार की विचारो की शृंखलाएं चलती ही रहती है।अनवरत।कभी चाहने पर तो कभी अन्तःस्रावी । जब से समझ पकडी तब से आज , और अभी तक।
जरा इसे अध्यात्म के दृष्टि कोण से देखे।
तत्व चिंतामणि में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने बताया है - मानव शरीर के स्थूल, सूक्ष्म शरीर में भेद से अन्तः करण होता है जिसमे सम्मिलित है मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
सबसे ऊपर है चेतन आत्मा। जिसके कारण हम जीवंत है।
चिंतन और मनन की प्रयोगशाला है -अनतःकरण। यहाँ बाहर-भीतर के संसार का सतत मंथन चलता है। मन बाहर की सूचना अंदर देता है, बुद्धि उसमें से अच्छे- बुरे की छटनी करके बताती है, वो भी मन को एक एग्झामिनर की तरह। मन उसे स्वीकार करता है यह स्वयं पर निर्भर करता है।
चित्त कम्प्यूटर की हार्ड -ड्राइव की तरह रिकार्ड करता है। उसको पता है बुद्धि ने क्या काम किया, मन ने क्या किया और क्या नहीं किया। इस शरीर मे मन सबसे शातिर घटक है। बुद्धि एक पैड एडवायजर की तरह समझाती भर है जबकि बुद्धि हमारे संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व की निर्णायक है। वास्तव मे बुद्धि सभी मानवों मे जन्म से ही लगभग समान होती है। वह कृपाण की तरह है, धार लगाने से तेज होती है।
चिंतन :
मन , बुद्धि और चित्त में विचारों के मंथन के बाद जो नवनीत निकालने की प्रक्रिया है वही चिंतन है। एक बार मथानी को हिला देने से नवनीत नहीं बनता वैसे ही सोचने की एक बारगी प्रक्रिया से नहीं बार बार पूरे परिदृश्य का अवलोकन करने से विषय का सही अंदाजा हो सकता है। गीता में एक शब्द आया है "अनुदर्शन" अर्थात किसी विषय को बार बार देखना। यही चिंतन है।
मनन :
चिंतन सम्पूर्ण विषय के विभिन्न बिन्दुओं को सम्यक रूप से देखने से होता है और तब उनमे से मुख्य-मुख्य बिन्दुओं को पकड़- पकड़ कर उनको व्यवहारिक रूप से समन्वय स्थापित करना तथा योगिक क्रिया मे _धारणा_ की तरह किया जाआना ही मनन है। मनन से चिंतन का पर्यवसान है अर्थात मनन से ही माखन मिलेगा। चित्त मे पलने वाली सोच चिंतन और मनन से ही दिशा पाती है, पुष्ट होती है।
दर्शन:
भारतीय ऋषि परंपरा और संस्कृति के मूल में विश्व बंधुत्व के महीन सूत्र है गुँथे हुए हैं।जो अपने जीवन के साथ समस्त जगत को कल्याणमय देखना चाहते हैं। जीवन को आनंदमय जीने की कला इसमें भरी पड़ी है। वेद पुराण, उपनिषद, मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि आदि हमारे जीवन की आचार-संहिताएं हैं।
पाश्चात्य केवल जगत के बाहरी सुख का इंतजाम करता है जबकि हमारी संस्कृति बाहर से अधिक भीतर की ओर देखती है। दर्शन और शोध मे एक सूक्ष्म सा अन्तर है। शोध केवल विश्लेषण पर आधारित होती है जबकि दर्शन एक व्यवस्थित संश्लेषण का परिणाम है। जैसे केनवास पर बनाए गए चित्र का विश्लेषण यह है कि वह चित्रकार द्वारा रंगों और तूलिका से बनाया गया उत्पाद है। लेकिन संश्लेषण यह है कि चित्रकार ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति मे तूलिका और रंगों को माध्यम बनाया है जिसका परिणाम वह कृति है।
सन्देश : सन्देश जो हमें महापुरुषों ने दिए हो, सन्देश वो जो हमारे भीतर चिंतन और मनन से जन्मे हों, जो हमें आत्मिक उन्नति देते हों और जो विश्व कल्याण की भावना से भरे हों केवल वही काम के है। असल की नकल करना कोई बुरा नहीं है लेकिन विवेक जागृत रहे।
....रामनारायण सोनी
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एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति सामान लेकर स्टेशन पर उतरा। उसनेँ टैक्सी वाले से कहा कि मुझे शिव-मंदिर जाना है।टैक्सी वाले नेँ कहा- 200 रुपये लगेँगे। इस पर आदमी अपना सामान खुद ही उठा कर चल पड़ा । वह व्यक्ति काफी दूर तक सामान लेकर चलता रहा। कुछ देर बाद पुन: उसे वही टैक्सी वाला दिखा, अब उस आदमी ने फिर टैक्सी वाले से पूछा – भैया अब तो मैने आधा से ज्यादा दूरी तर कर ली है तो अब आप कितना रुपये लेँगे? टैक्सी वाले नेँ जवाब दिया- 400 रुपये। उस आदमी नेँ फिर कहा- पहले दो सौ रुपये, अब चार सौ रुपये, ऐसा क्योँ।टैक्सी वाले नेँ जवाब दिया- महोदय, इतनी देर से आप शिव मंदिर की विपरीत दिशा मेँ जा रहे हैँ। उस व्यक्ति ने कुछ भी नहीँ कहा और चुपचाप टैक्सी मेँ बैठ गया।
यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं। विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। मंत्र शब्दों का विन्यास है। शब्द में असीम शक्ति होती है।
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दोषी कौन ?
एक पौराणिक आख्यान --
विधवा ब्राह्मणी का बच्चा सांप के काटने से मर गया । तत्काल लोगों ने सांप को पकर लिया । सांप वोला - मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से कटा। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ? जवाब- यम की। तत्काल यम का आवाहन हुआ , वह बोला-मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से सांप को प्रेरित किया। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ? जवाब- काल की। तत्काल काल का आवाहन हुआ , वह बोला-मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से यम को प्रेरित किया। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ?जवाब- इस बच्चे के कर्मो की।
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विकल्प ने किया संकल्प का सत्यानाश
दर्शन-शास्त्र के अनुसार संकल्प ही प्रमुख हैं जब कि विकल्प किसी भी प्राणी को उसके गंतव्य तक नहीं पंहुचा सकते । संकल्प से दृढ इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता हैं ओर प्राणी अपने संकल्प को पूरा करने के लिए जी जान लगा देता हैं जबकि विकल्प इच्छा-शक्ति को कमजोर कर हारे पै हरि नाम का दृष्टिकोण बनाकर विकल्पों को सामने रख लेता हैं ओर कभी भी गंतव्य तक पंहुचने की इच्छा-शक्ति जागृत नहीं कर पाता ।
२१ वी शताब्दी के इस दौर में जब कि कंप्यूटर क्रान्ति का युग चल रहा हैं ऐसे में युवापीढ़ी को राष्ट्र उत्थान कि दिशा में संकल्प पूर्वक दृढ इच्छा-शक्ति के साथ आगे बदना चाहिए जबकि युवापीढ़ी अपने मनोबल को कमजोर करते हुए विकल्पों के आधार पर ऊपर बढ़ने की वजाय नीचे की ओर गिरती जा रही हैं ऐसे में भला राष्ट्रका उत्थान कैसे हो सकता हैं ? प्रत्येक अभिभावक अपनी संतान के उज्जवल भविष्य की कल्पना करते हुए उसकी अभिरुचि के अनुरूप शिक्षित करने का प्रयास करता हैं और उस दिशा में ऊँची से ऊँची डिग्री हासिल कराता हैं भले ही हाई मैरिट के लिए नक़ल माफियाओं के माध्यम से कितने ही पापड भी बेलता हैं , लेकिन उसके सारे ख्वाब तब चूर-चूर हो जाते हैं जब हाई एजुकशन प्राप्त करने के बाद भी उसका बेटा किसी inter कॉलेज में घंटा बजाने का काम करने लगता हैं और वह भी ५ लाख देने के बाद। इन दिनों BTC की प्रक्रिया पूरे प्रदेश में चल रही है। मैरिट के आधार पर चयन हो रहा है, जिसमें ऐसे प्रतिभागी चयनित हो रहे हैं जो अपने कैरियर के अनुरूप डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बनकर देश सेवा कर सकते थे मगर अब abc और १२३, अबस में ही सिमट कर क्या ख़ाक कर पायेंगे? बेरोजगारी के दौर की दुहाई देकर अपने से कमजोर वर्ग का हक़ मारना कहाँ का न्याय है? जब BTC की अर्हता स्नातक तो सिर्फ स्नातक को ही इस पद के अनुरूप अर्ह माना जाना चाहिए, कम या ज्यादा नहीं।
शरीर है कंप्यूटर
२१ वीं सताब्दी कंप्यूटर क्रांति व सूचना प्रौद्योगिकी की चरम शताब्दी है, यदि दार्शनिक अंदाज में आध्यात्मिक रूप से परिभाषित करें तो भारतीय दर्शन आसानी से समझ में आ सकता है। मानव एक कंप्यूटर है- सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं इन्द्रियां, त्वचा, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि। निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं मन, बुद्धि, आत्मा, अहंकार आदि। शरीर में मस्तिष्क हार्डडिस्क है, और सारा दारोमदार इसी पर होता है । हार्ड डिस्क को नमी व डस्ट से बचाने को ac या air tite कक्ष की व्यवस्था की जाती है, ईश्वर ने मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए सर पर बाल दिए, शास्त्रों ने और ठंडा रखने हेतु चंदन लेपन की व्यवस्था दी, फ़िर भी धूप और शीत से वचाव हेतु सर ढांके रखने की आवश्यकता महसूस की गयी । अधिक तापमान में सिस्टम हंग होने लगता है और उसी तरह दिमाग भी काम करना बंद कर देता है। कभी-कभी बात करते बक्त व्यक्ति भूल जाता है कि वह क्या कह रहा था? यही तो हंग होना है। जिस तरह हार्ड डिस्क अलग-अलग मैमोरी की होती है उसी तरह मस्तिष्क की भी क्षमता और गति भिन्न-भिन्न है, हार्ड डिस्क का फेल होना ही ब्रेन हेमरेज है। यदि इलाज से सुधर हो गया तो ठीक, वरना मृत्यु। सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर की सारी गतिविधि निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर पर निर्भर है, यानि सभी १० इन्द्रियां पूरी तरह मन के अनुसार चलतीं हैं । मन बुद्धि को प्रभावित करता है , आत्मा मुख्य रूप से कंप्यूटर की विंडो है। कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों के प्रत्येक क्रिया कलाप व अनुभूति मस्तिष्क रूपी हार्ड डिस्क की मैमोरी में save रहती है यानि स्मृति पटल पर अंकित रहती है। वाइरस- जिस तरह से वाइरस कंप्यूटर को निष्क्रिय कर देता है, उसी तरह संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे वाइरस मानव-जीवन को बर्वाद कर देते हैं। वाइरस विभिन्न computers में प्रयोग की गई फ्लापी, सीडी, पेन ड्राइव या इंटरनेट से आता है, और दूषित मानसिकता वाले लोगों से मिलने-जुलने, कानाफूसी होने से दिमागी वाइरस आते हैं। वाइरस नष्ट करने को एंटी वाइरस स्कैन करना होता है उसी तरह सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी स्कैनिंग से संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे तनाव-वाइरस नष्ट होते हैं। समझदार लोग निरंतर करते रहते है सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी एंटी वाइरस करते रहते हैं, उनका मस्तिष्क तनावमुक्त रहता है।
4. संवर्धिनी - महिला सहभाग:
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘‘शक्ति के बिना विश्व का पुनरुत्थान संभव नहीं है। ऐसा क्यों है कि हमारा देश सभी देशों में कमजोर और पिछड़ा हुआ है?- क्योंकि यहां शक्ति का अपमान होता है। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी साध्य नहीं होगा।’’
अतः महिलाओं के माध्यम से संस्कृति के संर्वद्धन सुरक्षा व सम्पे्रषण के लिए तथा उनकी सहभागिता को बढ़़ाने के उद्देश्य से समाज के विभिन्न स्तरों में सहभागिता, सेवा, विकास, संस्कृति तथा समरसता को प्रोत्साहित करने के लिए कार्यक्रम आयोजित हांेगे।
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हमारी सोच♻
सामान्य चिंतन का ही परिणाम है। जिस चिंतन से यह उपजा है उसे संक्षेप में यहाँ लिख रहा हूँ :
मस्तिष्क में कई प्रकार की विचारो की शृंखलाएं चलती ही रहती है। सचमुच जन्म से आज ही नहीं, अभी तक।
आइये इसे अध्यात्म के दृष्टि कोण से देखे। तत्व चिंतामणि में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने बताया है - मानव शरीर के स्थूल, सूक्ष्म शरीर में भेद से अन्तः करण होता है जिसमे सम्मिलित है मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। सबसे ऊपर है चेतन आत्मा। जिसके कारण हम जीवंत है।
चिंतन और मनन की प्रयोगशाला है -अनतःकरण। यहाँ बाहर-भीतर के संसार का अपने अपने अनुसार मंथन चलता है। मन बाहर की सूचना अंदर देता है, बुद्धि उसमें से अच्छे- बुरे की छटनी करके बताती है वो भी मन को एक एग्झामिनर की तरह। मन उसे माने या न माने। चित्त कम्प्यूटर की हार्ड -ड्राइव की तरह रिकार्ड करता है। उसको पता है बुद्धि ने क्या काम किया, मन ने क्या किया और क्या नहीं किया। मित्रों यह जो मैं आपको बता रहा हूँ यह भी इसी तरह की एक प्रक्रिया का नमूना ही है, क्योंकि यह सब जस का तस बयां कर रहा हूँ।
चिंतन : मन , बुद्धि और चित्त में विचारों के मंथन के बाद जो नवनीत निकालने की प्रक्रिया है वही चिंतन है। सोचिये मंथन एक बार मथानी को हिला देने से नवनीत नहीं बनता वैसे ही सोचने की एक बारगी प्रक्रिया से नहीं बार बार पूरे परिदृश्य का अवलोकन करने से विषय का सही अंदाजा हो सकता है। गीता में एक शब्द आया है "अनुदर्शन" अर्थात किसी विषय को बार बार देखना। यही चिंतन है।
मनन : चिंतन सम्पूर्ण विषय के विभिन्न बिन्दुओं को सम्यक रूप से देखने से होता है और तब उनमे से मुख्य-मुख्य बिन्दुओं को पकड़- पकड़ कर उनको व्यवहारिक रूप से समन्वय स्थापित करना ही मनन है। मनन से मंथन का पर्यवसान है अर्थात मनन से ही माखन मिलेगा।
दर्शन: भारतीय ऋषि परंपरा और संस्कृति के मूल में विश्व बंधुत्व के महीन सूत्र है जो अपने जीवन के साथ समस्त जगत को कल्याणमय देखना चाहते हैं। जीवन को आनंदमय जीने की कला इसमें भरी पड़ी है। वेद पुराण, उपनिषद, मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि आदि हमारे जीवन की आचार-संहिताएं हैं। पाश्चात्य केवल जगत के सुख का इंतजाम करता है जबकि हमारी संस्कृति बाहर से अधिक भीतर की ओर देखती है।
सन्देश : सन्देश जो हमें महापुरुषों ने दिए हो, सन्देश वो जो हमारे भीतर चिंतन और मन से जन्मे हों, जो हमें आत्मिक उन्नति देते हों और जो विश्व कल्याण की भावना से भरे हों केवल वही काम के है। असल की नकल करना कोई बुरा नहीं है लेकिन विवेक जागृत रहे।
11/08/2015, 10:47 - soniwwz@gmail.com: संशोधित----!!
♻चिंतन- मनन-दर्शन-सन्देश ♻
हमारी सोच सामान्य चिंतन का ही परिणाम है। इसी चिंतन से जो कुछ उपजा है उसे संक्षेप में यहाँ लिख रहा हूँ :
मस्तिष्क में कई प्रकार की विचारो की शृंखलाएं चलती ही रहती है।अनवरत।कभी चाहने पर तो कभी अन्तःस्रावी । जब से समझ पकडी तब से आज , और अभी तक।
जरा इसे अध्यात्म के दृष्टि कोण से देखे।
तत्व चिंतामणि में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने बताया है - मानव शरीर के स्थूल, सूक्ष्म शरीर में भेद से अन्तः करण होता है जिसमे सम्मिलित है मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
सबसे ऊपर है चेतन आत्मा। जिसके कारण हम जीवंत है।
चिंतन और मनन की प्रयोगशाला है -अनतःकरण। यहाँ बाहर-भीतर के संसार का सतत मंथन चलता है। मन बाहर की सूचना अंदर देता है, बुद्धि उसमें से अच्छे- बुरे की छटनी करके बताती है, वो भी मन को एक एग्झामिनर की तरह। मन उसे स्वीकार करता है यह स्वयं पर निर्भर करता है।
चित्त कम्प्यूटर की हार्ड -ड्राइव की तरह रिकार्ड करता है। उसको पता है बुद्धि ने क्या काम किया, मन ने क्या किया और क्या नहीं किया। इस शरीर मे मन सबसे शातिर घटक है। बुद्धि एक पैड एडवायजर की तरह समझाती भर है जबकि बुद्धि हमारे संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व की निर्णायक है। वास्तव मे बुद्धि सभी मानवों मे जन्म से ही लगभग समान होती है। वह कृपाण की तरह है, धार लगाने से तेज होती है।
चिंतन :
मन , बुद्धि और चित्त में विचारों के मंथन के बाद जो नवनीत निकालने की प्रक्रिया है वही चिंतन है। एक बार मथानी को हिला देने से नवनीत नहीं बनता वैसे ही सोचने की एक बारगी प्रक्रिया से नहीं बार बार पूरे परिदृश्य का अवलोकन करने से विषय का सही अंदाजा हो सकता है। गीता में एक शब्द आया है "अनुदर्शन" अर्थात किसी विषय को बार बार देखना। यही चिंतन है।
मनन :
चिंतन सम्पूर्ण विषय के विभिन्न बिन्दुओं को सम्यक रूप से देखने से होता है और तब उनमे से मुख्य-मुख्य बिन्दुओं को पकड़- पकड़ कर उनको व्यवहारिक रूप से समन्वय स्थापित करना तथा योगिक क्रिया मे _धारणा_ की तरह किया जाआना ही मनन है। मनन से चिंतन का पर्यवसान है अर्थात मनन से ही माखन मिलेगा। चित्त मे पलने वाली सोच चिंतन और मनन से ही दिशा पाती है, पुष्ट होती है।
दर्शन:
भारतीय ऋषि परंपरा और संस्कृति के मूल में विश्व बंधुत्व के महीन सूत्र है गुँथे हुए हैं।जो अपने जीवन के साथ समस्त जगत को कल्याणमय देखना चाहते हैं। जीवन को आनंदमय जीने की कला इसमें भरी पड़ी है। वेद पुराण, उपनिषद, मानस, श्रीमद्भगवद्गीता आदि आदि हमारे जीवन की आचार-संहिताएं हैं।
पाश्चात्य केवल जगत के बाहरी सुख का इंतजाम करता है जबकि हमारी संस्कृति बाहर से अधिक भीतर की ओर देखती है। दर्शन और शोध मे एक सूक्ष्म सा अन्तर है। शोध केवल विश्लेषण पर आधारित होती है जबकि दर्शन एक व्यवस्थित संश्लेषण का परिणाम है। जैसे केनवास पर बनाए गए चित्र का विश्लेषण यह है कि वह चित्रकार द्वारा रंगों और तूलिका से बनाया गया उत्पाद है। लेकिन संश्लेषण यह है कि चित्रकार ने अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति मे तूलिका और रंगों को माध्यम बनाया है जिसका परिणाम वह कृति है।
सन्देश : सन्देश जो हमें महापुरुषों ने दिए हो, सन्देश वो जो हमारे भीतर चिंतन और मनन से जन्मे हों, जो हमें आत्मिक उन्नति देते हों और जो विश्व कल्याण की भावना से भरे हों केवल वही काम के है। असल की नकल करना कोई बुरा नहीं है लेकिन विवेक जागृत रहे।
....रामनारायण सोनी
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एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति सामान लेकर स्टेशन पर उतरा। उसनेँ टैक्सी वाले से कहा कि मुझे शिव-मंदिर जाना है।टैक्सी वाले नेँ कहा- 200 रुपये लगेँगे। इस पर आदमी अपना सामान खुद ही उठा कर चल पड़ा । वह व्यक्ति काफी दूर तक सामान लेकर चलता रहा। कुछ देर बाद पुन: उसे वही टैक्सी वाला दिखा, अब उस आदमी ने फिर टैक्सी वाले से पूछा – भैया अब तो मैने आधा से ज्यादा दूरी तर कर ली है तो अब आप कितना रुपये लेँगे? टैक्सी वाले नेँ जवाब दिया- 400 रुपये। उस आदमी नेँ फिर कहा- पहले दो सौ रुपये, अब चार सौ रुपये, ऐसा क्योँ।टैक्सी वाले नेँ जवाब दिया- महोदय, इतनी देर से आप शिव मंदिर की विपरीत दिशा मेँ जा रहे हैँ। उस व्यक्ति ने कुछ भी नहीँ कहा और चुपचाप टैक्सी मेँ बैठ गया।
इसी तरह जिँदगी के कई मुकाम मेँ हम किसी चीज को बिना गंभीरता से सोचे सीधे काम शुरु कर देते हैँ। किसी भी काम को हाथ मेँ लेनेँ से पहले सोच विचार लेवेँ कि जो आप कर रहे हैँ वो आपके लक्ष्य का हिस्सा है कि नहीँ। यदि दिशा ही गलत हो तो आप कितनी भी मेहनत का कोई लाभ नहीं मिल पायेगा। इसीलिए दिशा तय करेँ और आगे बढ़ेँ कामयाबी आपके हाथ जरुर थामेगी।
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मंत्र-शब्द-मन
मंत्र में अचित्य शक्ति होती है। हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है।
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मंत्र-शब्द-मन
मंत्र में अचित्य शक्ति होती है। हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है।
मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन।
मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है।
...किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं।
हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है।
उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है।
यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता।
मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है।
सोचने का अर्थ है-भीतर बोलना। सोचना और बोलना दो नहीं है। सोचने के समय में भी हम बोलते हैं और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं।
यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा।
मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द। शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है।
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मदालसा आख्यान[सम्पादन]
रानी मदालसा अपने पहले पुत्र को बचपन से ही वे संस्कार देने शुरू कर दिए जो वास्तविक विद्या है। आज हम जो विद्या ग्रहण करने पर जोर देते हैं या ले रहे है वह विद्या नहीं अविद्या है। सा विद्या या विमुक्तये, ये जीवन का लक्ष नहीं जो अपनाते हुए कदाचार कर रहे हैं । मदालसा के उपदेश से बालक विरक्त होकर जंगल में चला गया। दूसरा पुत्र हुआ उसे भी मदालसा ने वास्तविक विद्या दी , वह भी चला गया। इस तरह क्रमशः ४ पुत्र सन्यासी हो गए। जब पांचवां गर्भ आया तो राजा ने कहा प्रिये ! अब होने वाली संतान को वह विद्या मत देना, हमें उत्तराधिकारी चाहिए। पति के आदेश पर पांचवें पुत्र को मोह-लोभ , राग द्वेष के साथ राजयोग की शिक्षा दी। वह बड़ा हुआ आश्रम व्यवस्था के तहत राजा रानी ने पुत्र का राज्याभिषेक कर संन्यास आश्रम में जाने का विचार किया। रानी मदालसा ने पुत्र को एक अंगूठी दी और कहा कि इसमें उपदेश-पत्र रखा है। जीवन में जब भारी संकट आये कोई सहारा न दिखे तब अंगूठी से उपदेश-पत्र निकल कर पढ़ लेना। यह कहकर राजा रानी जंगल में चले गए। मदालसा के पुत्र ने १००० वर्ष शासन किया प्रजा खुशहाल थी। काशी नरेश ने आक्रमण कर दिया भयंकर युद्ध में मदालसा का पुत्र हर गया वह बीवी -बचों को छोड़कर अपनी जान बचाते हुए भाग खडा हुआ। जंगल में बेहाल वह घास फूस खाकर समय काटने लगा। उसे याद आया माँ ने कहा था - जीवन में जब भारी संकट आये कोई सहारा न दिखे तब अंगूठी से उपदेश-पत्र निकल कर पढ़ लेना। उसने तत्काल उपदेश-पत्र निकाला , जिसमें १ श्लोक था , भावार्थ इस तरह है- संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है यदि संग त्यागना मुश्किल हो तो सतसंग करो, कामना सर्वथा त्याज्य है यदि संभव न हो तो मोक्ष की कामना करो। उक्त उपदेश ही हम सभी लोगों को विद्या- अविद्या का भेद बताता है। उक्त मदालसा उपाख्यान को पढ़ें, गुनें यही आत्मतत्व का सार है।
मदालसा आख्यान[सम्पादन]
रानी मदालसा अपने पहले पुत्र को बचपन से ही वे संस्कार देने शुरू कर दिए जो वास्तविक विद्या है। आज हम जो विद्या ग्रहण करने पर जोर देते हैं या ले रहे है वह विद्या नहीं अविद्या है। सा विद्या या विमुक्तये, ये जीवन का लक्ष नहीं जो अपनाते हुए कदाचार कर रहे हैं । मदालसा के उपदेश से बालक विरक्त होकर जंगल में चला गया। दूसरा पुत्र हुआ उसे भी मदालसा ने वास्तविक विद्या दी , वह भी चला गया। इस तरह क्रमशः ४ पुत्र सन्यासी हो गए। जब पांचवां गर्भ आया तो राजा ने कहा प्रिये ! अब होने वाली संतान को वह विद्या मत देना, हमें उत्तराधिकारी चाहिए। पति के आदेश पर पांचवें पुत्र को मोह-लोभ , राग द्वेष के साथ राजयोग की शिक्षा दी। वह बड़ा हुआ आश्रम व्यवस्था के तहत राजा रानी ने पुत्र का राज्याभिषेक कर संन्यास आश्रम में जाने का विचार किया। रानी मदालसा ने पुत्र को एक अंगूठी दी और कहा कि इसमें उपदेश-पत्र रखा है। जीवन में जब भारी संकट आये कोई सहारा न दिखे तब अंगूठी से उपदेश-पत्र निकल कर पढ़ लेना। यह कहकर राजा रानी जंगल में चले गए। मदालसा के पुत्र ने १००० वर्ष शासन किया प्रजा खुशहाल थी। काशी नरेश ने आक्रमण कर दिया भयंकर युद्ध में मदालसा का पुत्र हर गया वह बीवी -बचों को छोड़कर अपनी जान बचाते हुए भाग खडा हुआ। जंगल में बेहाल वह घास फूस खाकर समय काटने लगा। उसे याद आया माँ ने कहा था - जीवन में जब भारी संकट आये कोई सहारा न दिखे तब अंगूठी से उपदेश-पत्र निकल कर पढ़ लेना। उसने तत्काल उपदेश-पत्र निकाला , जिसमें १ श्लोक था , भावार्थ इस तरह है- संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है यदि संग त्यागना मुश्किल हो तो सतसंग करो, कामना सर्वथा त्याज्य है यदि संभव न हो तो मोक्ष की कामना करो। उक्त उपदेश ही हम सभी लोगों को विद्या- अविद्या का भेद बताता है। उक्त मदालसा उपाख्यान को पढ़ें, गुनें यही आत्मतत्व का सार है।
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दोषी कौन ?
एक पौराणिक आख्यान --
विधवा ब्राह्मणी का बच्चा सांप के काटने से मर गया । तत्काल लोगों ने सांप को पकर लिया । सांप वोला - मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से कटा। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ? जवाब- यम की। तत्काल यम का आवाहन हुआ , वह बोला-मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से सांप को प्रेरित किया। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ? जवाब- काल की। तत्काल काल का आवाहन हुआ , वह बोला-मैं दोषी नहीं हूँ , मैंने किसी की प्रेरणा से यम को प्रेरित किया। प्रश्न - किसकी प्रेरणा से ?जवाब- इस बच्चे के कर्मो की।
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विकल्प ने किया संकल्प का सत्यानाश
दर्शन-शास्त्र के अनुसार संकल्प ही प्रमुख हैं जब कि विकल्प किसी भी प्राणी को उसके गंतव्य तक नहीं पंहुचा सकते । संकल्प से दृढ इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव होता हैं ओर प्राणी अपने संकल्प को पूरा करने के लिए जी जान लगा देता हैं जबकि विकल्प इच्छा-शक्ति को कमजोर कर हारे पै हरि नाम का दृष्टिकोण बनाकर विकल्पों को सामने रख लेता हैं ओर कभी भी गंतव्य तक पंहुचने की इच्छा-शक्ति जागृत नहीं कर पाता ।
२१ वी शताब्दी के इस दौर में जब कि कंप्यूटर क्रान्ति का युग चल रहा हैं ऐसे में युवापीढ़ी को राष्ट्र उत्थान कि दिशा में संकल्प पूर्वक दृढ इच्छा-शक्ति के साथ आगे बदना चाहिए जबकि युवापीढ़ी अपने मनोबल को कमजोर करते हुए विकल्पों के आधार पर ऊपर बढ़ने की वजाय नीचे की ओर गिरती जा रही हैं ऐसे में भला राष्ट्रका उत्थान कैसे हो सकता हैं ? प्रत्येक अभिभावक अपनी संतान के उज्जवल भविष्य की कल्पना करते हुए उसकी अभिरुचि के अनुरूप शिक्षित करने का प्रयास करता हैं और उस दिशा में ऊँची से ऊँची डिग्री हासिल कराता हैं भले ही हाई मैरिट के लिए नक़ल माफियाओं के माध्यम से कितने ही पापड भी बेलता हैं , लेकिन उसके सारे ख्वाब तब चूर-चूर हो जाते हैं जब हाई एजुकशन प्राप्त करने के बाद भी उसका बेटा किसी inter कॉलेज में घंटा बजाने का काम करने लगता हैं और वह भी ५ लाख देने के बाद। इन दिनों BTC की प्रक्रिया पूरे प्रदेश में चल रही है। मैरिट के आधार पर चयन हो रहा है, जिसमें ऐसे प्रतिभागी चयनित हो रहे हैं जो अपने कैरियर के अनुरूप डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बनकर देश सेवा कर सकते थे मगर अब abc और १२३, अबस में ही सिमट कर क्या ख़ाक कर पायेंगे? बेरोजगारी के दौर की दुहाई देकर अपने से कमजोर वर्ग का हक़ मारना कहाँ का न्याय है? जब BTC की अर्हता स्नातक तो सिर्फ स्नातक को ही इस पद के अनुरूप अर्ह माना जाना चाहिए, कम या ज्यादा नहीं।
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शरीर है कंप्यूटर
२१ वीं सताब्दी कंप्यूटर क्रांति व सूचना प्रौद्योगिकी की चरम शताब्दी है, यदि दार्शनिक अंदाज में आध्यात्मिक रूप से परिभाषित करें तो भारतीय दर्शन आसानी से समझ में आ सकता है। मानव एक कंप्यूटर है- सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं इन्द्रियां, त्वचा, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि। निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं मन, बुद्धि, आत्मा, अहंकार आदि। शरीर में मस्तिष्क हार्डडिस्क है, और सारा दारोमदार इसी पर होता है । हार्ड डिस्क को नमी व डस्ट से बचाने को ac या air tite कक्ष की व्यवस्था की जाती है, ईश्वर ने मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए सर पर बाल दिए, शास्त्रों ने और ठंडा रखने हेतु चंदन लेपन की व्यवस्था दी, फ़िर भी धूप और शीत से वचाव हेतु सर ढांके रखने की आवश्यकता महसूस की गयी । अधिक तापमान में सिस्टम हंग होने लगता है और उसी तरह दिमाग भी काम करना बंद कर देता है। कभी-कभी बात करते बक्त व्यक्ति भूल जाता है कि वह क्या कह रहा था? यही तो हंग होना है। जिस तरह हार्ड डिस्क अलग-अलग मैमोरी की होती है उसी तरह मस्तिष्क की भी क्षमता और गति भिन्न-भिन्न है, हार्ड डिस्क का फेल होना ही ब्रेन हेमरेज है। यदि इलाज से सुधर हो गया तो ठीक, वरना मृत्यु। सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर की सारी गतिविधि निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर पर निर्भर है, यानि सभी १० इन्द्रियां पूरी तरह मन के अनुसार चलतीं हैं । मन बुद्धि को प्रभावित करता है , आत्मा मुख्य रूप से कंप्यूटर की विंडो है। कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों के प्रत्येक क्रिया कलाप व अनुभूति मस्तिष्क रूपी हार्ड डिस्क की मैमोरी में save रहती है यानि स्मृति पटल पर अंकित रहती है। वाइरस- जिस तरह से वाइरस कंप्यूटर को निष्क्रिय कर देता है, उसी तरह संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे वाइरस मानव-जीवन को बर्वाद कर देते हैं। वाइरस विभिन्न computers में प्रयोग की गई फ्लापी, सीडी, पेन ड्राइव या इंटरनेट से आता है, और दूषित मानसिकता वाले लोगों से मिलने-जुलने, कानाफूसी होने से दिमागी वाइरस आते हैं। वाइरस नष्ट करने को एंटी वाइरस स्कैन करना होता है उसी तरह सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी स्कैनिंग से संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे तनाव-वाइरस नष्ट होते हैं। समझदार लोग निरंतर करते रहते है सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी एंटी वाइरस करते रहते हैं, उनका मस्तिष्क तनावमुक्त रहता है।
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स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘‘शक्ति के बिना विश्व का पुनरुत्थान संभव नहीं है। ऐसा क्यों है कि हमारा देश सभी देशों में कमजोर और पिछड़ा हुआ है?- क्योंकि यहां शक्ति का अपमान होता है। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी साध्य नहीं होगा।’’
अतः महिलाओं के माध्यम से संस्कृति के संर्वद्धन सुरक्षा व सम्पे्रषण के लिए तथा उनकी सहभागिता को बढ़़ाने के उद्देश्य से समाज के विभिन्न स्तरों में सहभागिता, सेवा, विकास, संस्कृति तथा समरसता को प्रोत्साहित करने के लिए कार्यक्रम आयोजित हांेगे।
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जीवन में कोई रहस्य है ही नहीं। या तुम कह सकते हो कि जीवन खुला रहस्य है। सब कुछ उपलब्ध है, कुछ भी छिपा नहीं है। तुम्हारे पास देखने की आंख भर होनी चाहिए।
जीवन किसी भी तरह से गुह्य रहस्य नहीं है। यह हर पेड़-पौधे पर लिखा है, सागर की एक-एक लहर पर लिखा है; सूरज की हर किरण में यह समाया है- चारों तरफ जीवन के हर खूबसूरत आयाम में। और जीवन तुम से डरता नहीं है, इसलिए उसे छुपने की जरूरत ही क्या है?
यह जीवन की बहुत बड़ी जरूरत है- यदि तुम समझ सको कि अतीत अब कहीं नहीं है। इसके बाहर हो जाओ, बाहर हो जाओ! यह समाप्त हो चुका है। अध्याय को बंद करो, इसे ढोये मत जाओ! और तब जीवन तुम्हें उपलब्ध है।
अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है- तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है। यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।
- ओशो
अभी के द्वार में प्रवेश करो और सब कुछ उदघाटित हो जाता है- तत्काल खुल जाता है, इसी क्षण प्रकट हो जाता है। जीवन कंजूस नहीं है। यह कभी भी कुछ भी नहीं छुपाता है, यह कुछ भी पीछे नहीं रोकता है। यह सब कुछ देने को तैयार है, पूर्ण और बेशर्त। लेकिन तुम तैयार नहीं हो।
- ओशो
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टॉल्सटॉय की प्रसिद्ध कहानी है......
एक आदमी साइबेरिया पहुँचा तो उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। लोगों ने कहा, हमारे पास एक ही तरीका है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।बस यही शर्त है।
वह आदमी सुबह उठते ही भागा। उसने सोचा एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सूरज डूबने लगा वह लौट पड़ा। जहाँ से चला था वह जगह ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई। इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा है...। सूरज डूबते-डूबते बस जाकर गिर पड़ा। खूँटी थोड़ी सी दूरी रह गई , घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस उस खूँटी पर पड़ा, सूरज डूब गया, वह आदमी भी मर गया।
कहानी सबकी जिंदगी की कहानी है। सब दौड़ रहे हैं। न भूख की फिक्र है, न प्यास की। जीने का समय कहाँ है? फिर जी लेंगे, और कभी कोई नहीं जी पाता।
जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीवन का बोध चाहिए। समझ में आ जावे तो समझना की अभी देर नहीं हुई है।
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जिंदगी की कहानी
एक आदमी साइबेरिया पहुँचा तो उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। लोगों ने कहा, हमारे पास एक ही तरीका है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।बस यही शर्त है।
वह आदमी सुबह उठते ही भागा। उसने सोचा एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सूरज डूबने लगा वह लौट पड़ा। जहाँ से चला था वह जगह ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई। इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा है...। सूरज डूबते-डूबते बस जाकर गिर पड़ा। खूँटी थोड़ी सी दूरी रह गई , घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस उस खूँटी पर पड़ा, सूरज डूब गया, वह आदमी भी मर गया।
कहानी सबकी जिंदगी की कहानी है। सब दौड़ रहे हैं। न भूख की फिक्र है, न प्यास की। जीने का समय कहाँ है? फिर जी लेंगे, और कभी कोई नहीं जी पाता।
जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीवन का बोध चाहिए। समझ में आ जावे तो समझना की अभी देर नहीं हुई है।
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