वैदिक शिक्षा ....ईशोपनिषद के मन्त्र.. आज भी व्यक्ति समाज, राष्ट्र व मानवता को कर्म की वास्तविक राह दिखाने में सक्षम हैं , सजग हैं , तत्पर हैं समीचीन व सन्दर्भित हैं ...आवश्यकता है इन पर चलने की |
ईशावास्योपनिषद्
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १....
इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल , स्थावर , जंगम , प्राणी आदि वस्तु है वह ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है | उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए , क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..
यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है | कर्म करने से अन्य जीने का कोई भी उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों में, ममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं होते |
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ ...
जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकार मय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |
निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है ,अन्य कोई मार्ग नहीं है| इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है , अनुशासित है ..
तू ही तू है ,
सब कहीं है |
सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
सब कुछ ईश्वर के ऊपर छोडो यारो ,
अच्छे कर्मों का फल है अच्छा ही होता |
कर्म- संसार का अटूट नियम है ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती , अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु जो लोग अपनी आत्मा( सेल्फ कोंशियस ) के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ ......अंक २ ....डा श्याम गुप्त ...
कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः - भाग दो
प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया था कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर , ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |
इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि विश्व को धारण करता है |
तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व में ) ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में परमेश्वर को ( एवं आत्म तत्व को ) ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के न करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
जब व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे परमात्म-रूप ही होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित, अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य अनादिकाल से यातातथ्यतः अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों व अनुशासन की व्यवस्था करता है |
अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ? वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |
कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः - भाग चार ....
पिछले अंक भाग तीन में उपनिषदकार .....ने विद्या-अविद्या, ज्ञान व कर्म, भौतिकसंसार एवं आत्मिक जगत के समन्वय से उत्तम, उचित सत्कर्म करने व अकर्मों से दूर रहने पर प्रकाश डाला था कि वह क्यों व कैसे इस ब्रह्म विद्या को प्राप्त करे ताकि उचित व सही दिशा में किये गए अपने कर्मों से समाज व मानवता को प्रगति की ओर दिशा प्रदान करे |
प्रस्तुत अंतिम भाग में मन्त्र १५ से 18 तक , बताया गया है कि उचित कर्मों व कर्तव्य पालन व कार्यों में सत्यता व वास्तविकता होनी चाहिए अन्यथा उस कर्म की उपयोगिता नहीं रहेगी | और इस जगत में सत्य को छिपाने के लाखों साधन व बहाने हैं | मनुष्य को उनसे सावधान रहना चाहिए |
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं |
तत्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ||...१५ ..
सत्य का मुख सुवर्णमय पात्र से ढंका हुआ है , हे पूषन! उस सत्य धर्म के दिखाई देने के हेतु तू उस आवरण को हटा दे | अर्थात चमक धमक वाली वस्तुएं , धन, सुख-सुविधाएं आदि प्रलोभन मनुष्य को सत्य से अवगत होने नहीं देते एवं उसे सत्य के कर्तव्य पथ से विमुख कर देते हैं और विविधि अकर्मों व दुष्कर्मों में धकेल देते हैं | अतः हे ईश्वर ! इस प्रलोभन का आवरण सत्यता के ऊपर से हट जाय ताकि हम सत्य पर चल सकें |
सत्य क्या है व सत्य की इतनी महत्ता क्यों दी जारही है | क्योंकि सत्य का ही दूसरा नाम धर्म है मूल कर्त्तव्य है ...... स: ति य: ..... अर्थात जिसमें स: अर्थात अनश्वर जीव् एवं ति अर्थात तिरोहितकारी विनाशशील संसार ...य:...दोनों का समन्वय है जिसमें ..वह सत्य |.......ब्रह्म का नाम 'सत्यम' कहा गया है ...स+ति+यम ...अर्थात स: = जीव ...ति = तिरोहित ..विनाशयोग्य संसार ...यम = अनुशासन ....अर्थात जो जीव व ब्रह्माण्ड दोनों को अनुशासन में रखने वाला है....धर्म है., कर्त्तव्य है ..ईश्वर है...ब्रह्म है वही सत्य है | ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु आवरण रहित ही रहनी चाहिए अतः मानव सत्य के ऊपर से प्रलोभनों का आवरण हटाकर कर्तव्यपथ पर चले | तभी सारे कार्य उद्देश्यपूर्ण व सफल होते हैं |
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह
तेजो यत्ते रूपंकल्याणतम तत्ते पश्यामि,
योs सावसौ पुरुष: सो sहमस्मि ||....१६ ...
हे सब के पालक, अद्वितीय ,अनुशासक -न्यायकारी , प्रकाश स्वरुप ( ज्ञान दायक ) प्रजापति ( ईश्वर ) ...दुखप्रद ताप किरणों ( रश्मीन) को दूर करें एवं सुखप्रद तेज समूह( तेज ) को प्राप्त करा | आपका जो कल्याणकारी , मंगलमय रूप है मैं उसे देख रहा हूँ अतः जो वह पुरुष (ईश्वर ) है वही मैं हूँ |
वास्तव में जब मनुष्य ईश्वर के उन गुणों------ पूषन ......सबका पोषक बिना भेद-भाव के कर्तव्य कारक, ---एकर्षि.....अपने विशेष गुणों के कारण अद्वितीय सब में समानरूप से प्रसिद्ध व सब को उपलब्ध , --- यम.... अटल न्यायकारी ,---सूर्य .. अन्तःकरण से अज्ञान का अन्धकार हटाकर हृदय में ज्ञान का प्रकाश देनेवाला,---- प्रजापति ....अपने प्रजा, परिवार, देश, समाज ,राष्ट्र व मानवता का रक्षक आदि .....को आत्मसात कर लेता है तो उसका सरल-सहज ,भक्त-प्रेमी हृदय अपने प्रभु का दर्शन कर लेता है एवं स्वयं ईश्वर रूपमय होजाता है| इसप्रकार सत्य से आवरण हटने पर जब सत्य सम्मुख होता है तो ज्ञात होता है कि जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है वही मैं हूँ |
" मैं वही हूँ ,
तू वही है | ".....
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम् |
ओम क्रतो स्मर क्लिवे स्मर कृतं स्मर ||...१७.....
वायु: अर्थात शरीर में आने जाने वाला जीव ( अनिलं.=.जीव. शक्ति, प्राण, तेज, आत्मा ) अमर है परन्तु यह शरीर स्वयं केवल भस्म पर्यंत है अर्थात मर्त्य है , नाशवान है अतः अंत समय में हे जीव ओम का अर्थात उस ईश्वर का स्मरण कर , मन की निर्बलता , मृत्यु का भय आदि दूर करने के लिए ईश्वर का स्मरण कर एवं अपने किये हुए कर्मो का स्मरण कर |
उपनिषदकार का कथन है कि मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार व्यतीत करना चाहिए कि जब अमर आत्मा व नश्वर शरीर के वियोग अर्थात अपने अंतिम समय में, वह ओम का उच्चारण अर्थात ईश्वर का ध्यान कर सके | अंतिम समय में मन में कोई तृष्णा-- व एषणा ---लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा आदि न रहे अन्यथा उसे ईश्वर के ध्यान की बजाय पुत्रादि, धन, अधूरे कर्म आदि का ध्यान रहेगा एवं अंतिम समय कष्ट प्रदायक होगा |
अग्ने नय सुपथा राये आस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् |
युयोध्य स्मज्जुहुराणमेन भूयिष्ठान्तेनाम उक्तिं विधेम ||..१८...
हे अग्ने ..प्रकाशमय सर्वशक्तिमान, तेजस्वी ईश्वर आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले हैं अतः हमें एश्वर्य अर्थात उचित ज्ञान व कर्म की प्राप्ति के अच्छे मार्ग ...सुकर्मों, सत्कर्मों पर चलाइये | हमें उलटे, टेड़े- मेडे, विकृत मार्ग पर चलने रूपी पाप से बचाइये | हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं |
वेदों के मन्त्रों -ऋचाओं का भाव मूलतः दो रूपों में प्राप्त होता है ...१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव को अनेक शिक्षाएं दी गयी हैं ताकि वह अपने आचरण व कर्म से जीवन को उच्चकोटि का बनाए; परन्तु वह अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं | अंत में ईश्वर की दया का सहारा ही उचित है| पुण्य के पथ पर चलने में ईश्वर का सहारा ही आवश्यक है |मन्त्र १७ में ..'ओम क्रतोस्मर' . उपदेश रूप में हैं परन्तु ...'कृतं स्मर '....नियम रूप में है जीवन के अंतिम समय उसे अपने कृत्यों का स्मरण आयेगा ही एवं उन्हीं के अनुसार उसे अंत समय में दुःख या सुख का अनुभव होगा |.... उपनिषदकार ने इस अंतिम नमस्कार मन्त्र में पाप का मूल रूप उलटे मार्ग पर चलना ही कहा है | यही संब अकर्मों, विकर्मों व दुष्कर्मों की जड़ है |
आज हम सभी उलटे मार्ग पर अग्रसर हैं | स्वयं के भौतिक लाभ, अति-सुखाभिलाषा , अनावश्यक मनोरंजन , धनागम के अनावश्यक व अन्याय से प्राप्त श्रोत, अनावश्यक धन-संचय , धन-आधारित व्यवथाएं ..स्कूल, कालेज, अस्पताल , संस्थाएं, खेल, मनोरंजन ....गली गली में गुरुओं , साधू-संतों के मठ रूपी आलीशान महल , चेलों की फौज , वोट की राजनीति .....आदि सभी उलटे मार्ग अंतत दुष्कर्मों को प्रश्रय देते हैंजिनके कारण आज समाज में भ्रष्टाचार, लूट-खसोट , अनाचार, अत्याचार , बलात्कार आदि फैले हुए हैं |
" अब तो हर ओर घना छाया धुंआ लगता है
आदमी आजकल खुद से भी खफा लगता है ||"
निश्चय ही वेदों के अतिरिक्त विश्व के किसी भी धर्म, संस्कृति, समाज, इतिहास, दर्शन, साहित्य ,ज्ञान में इतनी अधुना वैज्ञानिक तार्किकता के साथ मानवीय कर्म व स्वयं में निष्ठा..... श्रृद्धा, भक्ति, दर्शन, आस्था, ईश्वर पर धार्मिक विश्वास के समन्वय के साथ मानव आचरण व कर्तव्यों के प्रति शिक्षाएं व ज्ञान का भण्डार देखने को नहीं मिलता |
अत: वैदिक शिक्षा ....ईशोपनिषद के मन्त्र.. आज भी व्यक्ति समाज, राष्ट्र व मानवता को कर्म की वास्तविक राह दिखने में सक्षम हैं , सजग हैं , तत्पर हैं समीचीन व सन्दर्भित हैं ...आवश्यकता है इन पर चलने की |
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