'सर्जना' अपना साझा मंच
एडमिन -----अपनी बात
प्रिय बंधुओं !
आपको पुनः याद दिल दें - मंच का मुख्य उद्देश्य है समस्त स्वर्णकार समाज के लिए साहित्य, संस्कृति, शैक्षिक और समाज सेवा के क्षेत्र में में बुनियादी मैदानी कार्य करना। whats app इस के लिए एक सशक्त माध्यम है जिससे हम आपस में दैनिक चर्या की तरह जुड़े हैं। मंच की सर्वोपरि प्राथमिकता है हमारे समाज में उपलब्ध प्रच्छन्न प्रतिभाओं को साझा मंच प्रदान करना जिससे उन्हें विकास मिल सके। ईश्वर ने प्रत्येक मानव में कुछ न कुछ अतिविशिष्ट योग्यता प्रदान कर रखी है, आवश्यकता है उसे पहचान कर उपयुक्त वातावरण और अवसर प्रदान करने की। हम सामुदायिक प्रयास करके उसे उभारें। अपने भीतर छुपे कलाकर को उद्घाटित करें। हमारे बीच में अपनों से कैसी झिझक। आपसे बार बार यही अनुरोध किया जा रहा है की अपनी मौलिकता को बाहर लाने का प्रयास करें। आदर्शों के अनुशीलन की आवश्यकता है लेकिन ध्यान रहे जलेबी-जलेबी कहने से जलेबी का स्वाद नहीं आ सकता। सृजनशीलता कर्मों ,कार्यों से ही संभव है। मुझे यह विश्वास हो चला है कि इस हेतु केवल युवा शक्ति में ही यह कुव्वत है। सीनियर लोगों का दिशा-निर्देशन प्राप्त कर संकल्प लें। संवादों की गुणवत्ता बनाये रखें। मेरी आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं।
आज से हम दो बातें एडमिन की और से दैनिकी में शामिल कर रहे है-
१, सर्जन सुप्रभात अपने सृजन से हिंदी/संस्कृत में
२, वैदिक अथवा पौराणिक प्रार्थना प्रामाणिक अर्थ के सहित।
रामनारायण सोनी
एडमिन -----अपनी बात
प्रिय बंधुओं !
आपको पुनः याद दिल दें - मंच का मुख्य उद्देश्य है समस्त स्वर्णकार समाज के लिए साहित्य, संस्कृति, शैक्षिक और समाज सेवा के क्षेत्र में में बुनियादी मैदानी कार्य करना। whats app इस के लिए एक सशक्त माध्यम है जिससे हम आपस में दैनिक चर्या की तरह जुड़े हैं। मंच की सर्वोपरि प्राथमिकता है हमारे समाज में उपलब्ध प्रच्छन्न प्रतिभाओं को साझा मंच प्रदान करना जिससे उन्हें विकास मिल सके। ईश्वर ने प्रत्येक मानव में कुछ न कुछ अतिविशिष्ट योग्यता प्रदान कर रखी है, आवश्यकता है उसे पहचान कर उपयुक्त वातावरण और अवसर प्रदान करने की। हम सामुदायिक प्रयास करके उसे उभारें। अपने भीतर छुपे कलाकर को उद्घाटित करें। हमारे बीच में अपनों से कैसी झिझक। आपसे बार बार यही अनुरोध किया जा रहा है की अपनी मौलिकता को बाहर लाने का प्रयास करें। आदर्शों के अनुशीलन की आवश्यकता है लेकिन ध्यान रहे जलेबी-जलेबी कहने से जलेबी का स्वाद नहीं आ सकता। सृजनशीलता कर्मों ,कार्यों से ही संभव है। मुझे यह विश्वास हो चला है कि इस हेतु केवल युवा शक्ति में ही यह कुव्वत है। सीनियर लोगों का दिशा-निर्देशन प्राप्त कर संकल्प लें। संवादों की गुणवत्ता बनाये रखें। मेरी आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं।
आज से हम दो बातें एडमिन की और से दैनिकी में शामिल कर रहे है-
१, सर्जन सुप्रभात अपने सृजन से हिंदी/संस्कृत में
२, वैदिक अथवा पौराणिक प्रार्थना प्रामाणिक अर्थ के सहित।
रामनारायण सोनी
सुप्रभात
सर्जना मंच
वृहदारण्यक
उपनिषद तथा ईशावास्य उपनिषद
ॐ पूर्णमदः
पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ||
वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा सब प्रकार से पूर्ण है। यह (जगत) भी पूर्ण (ही) है क्योंकि उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण (जगत) उत्पन्न हुआ है। पूर्ण के पूर्ण को निकाल लेने पर (भी) पूर्ण ही बचा रहता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा सब प्रकार से पूर्ण है। यह (जगत) भी पूर्ण (ही) है क्योंकि उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण (जगत) उत्पन्न हुआ है। पूर्ण के पूर्ण को निकाल लेने पर (भी) पूर्ण ही बचा रहता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
तैतरीय उपनिषद
ॐ शं नो मित्रः
शं वरुणः। शं नो
भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो
ब्रिहस्पतिः। शं नो
विष्णुरुरुक्रमः।
नमो ब्रह्मणे।
नमस्ते वायो। त्वमेव
प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव
प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि।
ॠतं वदिष्यामि।
सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थ – देवता ‘मित्र’ हमारे लिए कल्याणकारी हों, वरुण कल्याणकारी हों । ‘अर्यमा’हमारा कल्याण करें । हमारे लिए इन्द्र एवं बृहस्पति कल्याणप्रद हों । ‘उरुक्रम’ (विशाल डगों वाले) विष्णु हमारे प्रति कल्याणप्रद हों । ब्रह्म को नमन है । वायुदेव तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा । ऋत बोलूंगा । सत्य बोलूंगा । वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें । वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें । रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की । त्रिविध ताप की शांति हो ।
सुप्रभात
ॐ सह नाववतु |
सह नौ भुनक्तु |
सह वीर्यं
करवावहै |
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै ||
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ||
हे परमात्मन ! आप हम दोनों गुरु-शिष्यों की रक्षा करें। हम दोनों का साथ- साथ पालन करें। हम दोनों साथ-साथ ही शक्ति प्राप्त करें। हम दोनों की पढ़ी हुई विद्या तेजोमयी हो। हम दोनों परस्पर कभी द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
( तैतरीय उपनिषद, कठोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद तथा श्वेताशेतोपनिषद से )
( तैतरीय उपनिषद, कठोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद तथा श्वेताशेतोपनिषद से )
सर्जना मंच
ला
केन उपनिषद तथा
छान्द्योग्य उपनिषद
ॐ आप्यायन्तु
ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो
बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वम्
ब्रह्मौपनिषदम् माऽहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा
मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणम्
मेऽस्तु।
तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते
मयि सन्तु ते मयि
सन्तु।
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ॥
हे परमात्मन !
मेरे अङ्ग पुष्ट हों तथा मेरे वाक् , प्राण, चक्षु, श्रोत्र, बल और इन्द्रियाँ पुष्ट हों। यह सब उपनिषदवेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ। ब्रह्म मेरा निराकरण न करे (अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं , और ब्रम्ह मेरा परित्याग न करे ) इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो। उपनिषदों (वेद) में जो धर्म है वह आत्मज्ञान में लगे हुए , मुझ में हों, , वे मुझ में हों। त्रिविध ताप की शांति हो।
हे परमात्मन !
मेरे अङ्ग पुष्ट हों तथा मेरे वाक् , प्राण, चक्षु, श्रोत्र, बल और इन्द्रियाँ पुष्ट हों। यह सब उपनिषदवेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ। ब्रह्म मेरा निराकरण न करे (अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं , और ब्रम्ह मेरा परित्याग न करे ) इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो। उपनिषदों (वेद) में जो धर्म है वह आत्मज्ञान में लगे हुए , मुझ में हों, , वे मुझ में हों। त्रिविध ताप की शांति हो।
ऐतरेय उपनिषद
ॐ वाङ् मे मनसि
प्रतिष्ठिता
मनो मे वाचि
प्रतिष्ठित-मावीरावीर्म एधि। वेदस्य म आणिस्थः
श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतम्
वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु।
तद्वक्तारमत्ववतु
मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ॥
हे परमात्मा ! मेरी वाणी में मन स्थित होजाय और मेरा मन वाणी में स्थित हो जाय। हे प्रकाश स्वरुप परमेश्वर आप मेरे लिए प्रकट हो जाइए। मेरे मन और वाणी दोनों वेद विषयक ज्ञान को लाने वाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान मुझे न छोड़े। इस अध्ययन के द्वारा मै दिन और रात एक कर दूँ। मैं श्रेष्ठ शब्दों को ही बोलूंगा। सत्य ही बोला करूँगा। वह परमात्मा मेरी रक्षा करे। और आचार्य की रक्षा करे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
मुण्डक उपनिषद,
माण्डूक्य उपनिषद तथा प्रश्नोपनिषद
ॐ भद्रं कर्णेभिः
श्रुणुयाम देवाः।
भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्राः !
स्थिरैररङ्गैस्तुष्टुवागँ सस्तनूभिः।
व्यशेम देवहितम्
यदायुः !!
हे देवगण ! कानों से हम कल्याणमय वचन सुनें। अपने नेत्रों से शुभ देखें तथा अपने स्थिर अंगों और शरीर से स्तुति करने वाले हम लोग देवताओं के लिए हितकर आयु का भोग करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
स्वस्ति न
इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा
विश्ववेदाः।
स्वस्ति
नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो
ब्रिहस्पतिर्दधातु !!
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः ॥
महान कीर्तिमान इंद्र हमारा कल्याण करे, परम ज्ञानवान पूषा हमारा कल्याण करे , जो अरिष्टों (आपत्तियों) के लिए चक्र के सामान (घातक) है वह गरुड़ हमारा कल्याण करे तथा बृहस्पति हमारा कल्याण करे।
ॐ द्यौ:
शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथिवी
शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय:
शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:,
शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि ॥
ॐ शान्ति:
शान्ति: शान्ति: ॥
ॐ असतो मा
सद्गमय।
तमसो मा
ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माSमृतं गमय।
ॐ शान्ति:
शान्ति: शान्ति: ॥
http://hindi.speakingtree.in/spiritual-blogs/seekers/mysticism/shanti-mantra-295921
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १)
अर्थ:- वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २)
अर्थ:- देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए ।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु, अगले मंत्र में उल्लेख ।)
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)
मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुषंसिनीतः ।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र १)
[अन्यत् श्रेयः उत अन्यत् (च) एव प्रेयः, ते उभे पुरुषम् नाना अर्थे सिनीतः; तयोः श्रेयः आददानस्य साधुः भवति, यः उ प्रेयः वृणीते (सः) अर्थात् हीयते ।]
एक वह कर्म है जिसमें उसका हित निहित रहता है और दूसरा वह है जो उसे प्रिय लगता है । ये दोनों ही उसे विभिन्न प्रयोजनों से बांधे रहते हैं । इन दो में से प्रथम कल्याणकारी कर्म को चुनने वाले का भला होता है, किंतु लुभाने वाले दूसरे कर्म में संलग्न पुरुष सार्थक पुरुषार्थ से च्युत हो जाता है ।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र १)
[अन्यत् श्रेयः उत अन्यत् (च) एव प्रेयः, ते उभे पुरुषम् नाना अर्थे सिनीतः; तयोः श्रेयः आददानस्य साधुः भवति, यः उ प्रेयः वृणीते (सः) अर्थात् हीयते ।]
एक वह कर्म है जिसमें उसका हित निहित रहता है और दूसरा वह है जो उसे प्रिय लगता है । ये दोनों ही उसे विभिन्न प्रयोजनों से बांधे रहते हैं । इन दो में से प्रथम कल्याणकारी कर्म को चुनने वाले का भला होता है, किंतु लुभाने वाले दूसरे कर्म में संलग्न पुरुष सार्थक पुरुषार्थ से च्युत हो जाता है ।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः ।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र २)
[श्रेयः च प्रेयः च मनुष्यम् एतः, धीरः तौ सम्परीत्य विविनक्ति, धीरः हि श्रेयः अभि प्रेयसः वृणीते, प्रेयः मन्दः योग-क्षेमात् वृणीते ।]
मंगलकारी तथा प्रिय लगने वाले कर्म मनुष्य के पास क्रमशः आते रहते हैं, अर्थात् चुने और संपन्न किये जाने हेतु वे उपस्थित होते रहते हैं । गहन विचारणा के पश्चात् विवेकशील व्यक्ति दोनों के मध्य भेद करता है और प्रिय की तुलना में हितकर का चुनाव करता है । अविवेकी पुरुष (ऐहिक) योगक्षेम के कारण मन को अच्छा लगने वाले कर्म को चुनता है ।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, बल्ली २, मंत्र २)
[श्रेयः च प्रेयः च मनुष्यम् एतः, धीरः तौ सम्परीत्य विविनक्ति, धीरः हि श्रेयः अभि प्रेयसः वृणीते, प्रेयः मन्दः योग-क्षेमात् वृणीते ।]
मंगलकारी तथा प्रिय लगने वाले कर्म मनुष्य के पास क्रमशः आते रहते हैं, अर्थात् चुने और संपन्न किये जाने हेतु वे उपस्थित होते रहते हैं । गहन विचारणा के पश्चात् विवेकशील व्यक्ति दोनों के मध्य भेद करता है और प्रिय की तुलना में हितकर का चुनाव करता है । अविवेकी पुरुष (ऐहिक) योगक्षेम के कारण मन को अच्छा लगने वाले कर्म को चुनता है ।
स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य विख्यात है । वे कहते थे:
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी । कदाचित् अंधकार से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था । वे चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग खोजें । स्वामीजी इस कथन के महत्त्व को कदाचित् ऐहिक जीवन के संदर्भ देखते थे ।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)
(उत्तिष्ठत, जाग्रत, वरान् प्राप्य निबोधत । क्षुरस्य निशिता धारा (यथा) दुरत्यया (तथा एव आत्मज्ञानस्य) तत् पथः दुर्गं (इति) कवयः वदन्ति ।)
जिसका अर्थ कुछ यूं हैः उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना ।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
(ईशोपनिषद्, मन्त्र 1)
अर्थ : ‘अखिल ब्रह्मांड में जड़-चेतन स्वरूप जो भी जगत् है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्यागपूर्वक (इसे) भोगते रहो, आसक्त मत होओ (क्योंकि) धन – भोग्य पदार्थ – किसका है, अर्थात् किसी का नहीं है ।’
ऋग्वेदसंहिता के प्रथम मंडल के पांचवें अध्याय में जल की महत्ता एवं उसकी उपासना से संबंधित कतिपय मंत्र हैं । उनमें से चार मंत्र ये हैं:
(उद्धृत ऋचाओं का स्रोत ऋग्वेदसंहिता, मण्डल 1, सूक्त 23)
अपोदेवीरुपह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ॥18॥
(अपः देवीः उप-ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः, सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ।)
शब्दानुसार मंत्र का अर्थ यह निकलता हैः जिस जल का पान हमारी गायें करती हैं उस जलदेवी का मैं आह्वान करता हूं । सिंधुओं अर्थात् नदियों को हवि समर्पित करना हमारा कर्तव्य है ।
अप्स्व९न्तरमृतमप्सुभेषजमपामुतप्रशस्तये । देवाभवतवाजिनः ॥19॥
(अप्सु अन्तः अमृतम् अप्सु भेषजम् अपाम् उत प्रशस्तये, देवाः भवत वाजिनः ।)
शब्दार्थः जल में अमृत है, जल में औषधि है । हे ऋत्विज्जनो, ऐसे श्रेष्ठ जल की प्रशंसा अर्थात् स्तुति करने में शीघ्रता बरतें ।
जल वस्तुतः जीवन है; जीवन का आधार है । जल के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं है । जल स्वयं औषधि है; शरीर के दूषित तत्व जल के माध्यम से शरीर के बाहर निष्कासित होते हैं । ऐसे जल की स्तुति में यज्ञ-पुरोहित विलंब न करें । मंत्र में देव शब्द ऋत्विज् के लिए प्रयोग किया गया है, न कि देव के सामान्य अर्थ में । ऋत्विज् यज्ञ में पौरोहित्य कार्य में लगे बाह्मण-देवताओं के लिए प्रयुक्त शब्द है ।
आपःपृणीतभेषजंवरूथंतन्वेमम । ज्योक्चसूर्यंदृशे ॥21॥
(आपः पृणीत भेषजम् वरूथम् तन्वे मम, ज्योक् च सूर्यम् दृशे ।)
शब्दार्थः जल मेरे शरीर के लिए रोगनिवारक औषध की पूर्ति करे । हम चिरकाल तक सूर्य को देखें ।
उक्त मंत्रानुसार जल को औषधीय गुणों से परिपूर्ण माना गया है । यह प्रार्थना व्यक्त की गयी है कि जल मेरे शरीर को रोगों से मुक्त रखने वाले औषधीय तत्व प्रदान करे । आगे यह भी कि हम दीर्घकाल तक नीरोग रहें । लंबे समय तक सूर्य देखने का तात्पर्य यही है कि हमारी आयु लंबी रहे और हम तब तक स्वस्थ बने रहें ।
इदमापःप्रवहतयत्किञ्चदुरितंमयि । यद्वाहमभिदुद्रोहयद्वाशेपेउतानृतम् ॥22॥
(इदम् आपः प्र-वहत यत् किम् च दुः-इतम् मयि, यत् वा अहम् अभि-दुद्रोह यत् वा शेपे उत अनृतम् ।)
शब्दार्थः मैंने अज्ञानवश जो भी अनुचित कार्य किये हों, अथवा जानबूझकर दूसरों के प्रति द्वेष एवं वैर का भाव अपनाया हो, अथवा दूसरों की अनिष्ट की कामना मैंने की हो, उस सब को यह जल मुझसे दूर बहा ले जावे ।
मुझे इस मंत्र के भाव सर्वाधिक गंभीर लगते हैं । इसमें व्यक्ति का अपने अपराधों या अनुचित कार्यों के प्रति प्रायश्चित्त का भाव झलकता है । जानबूझकर अथवा अनजाने में जो भी अपराध मुझसे बन पड़े हों उनके पापों से यह जल मुझे मुक्त करे यह प्रार्थना यहां पर अभिव्यक्त है । दूसरे के प्रति दुर्भाव, उसके बुरे की चाहत से भी मुझे मुक्ति मिले । पाप कर्मों से मुक्ति और सात्विक मनोभावों की प्राप्ति की वांछना इस ऋचा में निहित है । जिस प्रकार हम जल से हाथ-पांव या शरीर धोने के बाद अपने को स्वच्छ अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जल द्वारा अपने कलुषित विचारों के शोधन का विश्वास भी हमें हो सकता है ।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
(ईशोपनिषद्, मंत्र ११)
[यः विद्यां च अविद्यां च तद् उभयं सह वेद (सः) अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।]
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मन का शिवसंकल्पयस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः । यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
(शुक्लयजुर्वेद, ३४, ५)
जिस मन में ऋचाएं (ऋग्वेद-मन्त्र), साम (सामवेद-मन्त्र) तथा यजुः (यजुर्वेद-मन्त्र) प्रतिष्ठित रह्ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे रथचक्र के आरे उसके केन्द्र पर गुंथे रहते हैं (अर्थात् जिनका मनन एवं उच्चारण मन द्वारा ही होता है), और जिस मन से प्रजाओं (मानवों) की समस्त चेतना शक्ति (पदार्थगत ज्ञान एवं उसकी समीक्षा की सामर्थ्य) ओतप्रोत रहती है, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
ऋचाएं, सामवैदिक मन्त्र तथा समस्त यजुः में निहित प्रार्थनाभाव, लौकिक कर्तव्यभाव तथा आध्यात्मिक दर्शन अन्ततः मन में ही संचित रहते हैं, वही उनका व्याख्याकार, उन्हें स्वीकार करने वाला और स्थूल शरीर को उनके अनुकूल चलाने वाला है । वैदिक दर्शन में चित्त तथा बुद्धि मन के चिन्तन-मनन की शक्तियों को इंगित करते हैं । इन्हें ठीक-ठीक कैसे परिभाषित किया जाये मैं सोच नहीं पाता । बहुत-सी बातें अनुभूति की अधिक होती हैं और मात्र श्रव्य शब्दों से उनकी प्रतीति नहीं हो पाती है ।
जिस मन में ऋचाएं (ऋग्वेद-मन्त्र), साम (सामवेद-मन्त्र) तथा यजुः (यजुर्वेद-मन्त्र) प्रतिष्ठित रह्ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे रथचक्र के आरे उसके केन्द्र पर गुंथे रहते हैं (अर्थात् जिनका मनन एवं उच्चारण मन द्वारा ही होता है), और जिस मन से प्रजाओं (मानवों) की समस्त चेतना शक्ति (पदार्थगत ज्ञान एवं उसकी समीक्षा की सामर्थ्य) ओतप्रोत रहती है, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
ऋचाएं, सामवैदिक मन्त्र तथा समस्त यजुः में निहित प्रार्थनाभाव, लौकिक कर्तव्यभाव तथा आध्यात्मिक दर्शन अन्ततः मन में ही संचित रहते हैं, वही उनका व्याख्याकार, उन्हें स्वीकार करने वाला और स्थूल शरीर को उनके अनुकूल चलाने वाला है । वैदिक दर्शन में चित्त तथा बुद्धि मन के चिन्तन-मनन की शक्तियों को इंगित करते हैं । इन्हें ठीक-ठीक कैसे परिभाषित किया जाये मैं सोच नहीं पाता । बहुत-सी बातें अनुभूति की अधिक होती हैं और मात्र श्रव्य शब्दों से उनकी प्रतीति नहीं हो पाती है ।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः । यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
(शुक्लयजुर्वेद, ३४, २)
इस मन्त्र का तात्पर्य कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है: जिस (मन) के द्वारा यज्ञ में उस (यज्ञ) की क्रियाविधि के समुचित ज्ञान के रहते हुए कर्मशील, धैर्यवान मनीषीजन कर्म सम्पादित करते हैं, जो अपूर्व है, यज्ञकार्य की क्षमता रखता है, और जो प्रजाओं (मानवों) के अन्तस् में स्थित रहता है वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।।
यहां अपूर्व से मतलब है जिसके पूर्व कोई (ज्ञानेन्द्रिय) नहीं है । जहां ज्ञानेन्द्रियों का स्थूल भौतिक स्वरूप होता है वहीं मन का कोई भौतिक रूप नहीं है । फिर भी वह हमारे भीतर कहीं स्थित है । वैदिक साहित्य में जिस यज्ञ शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र दिखाई देता है उसका वास्तविक अर्थ क्या है मैं समझ नहीं पाया हुं । क्या यह अग्नि में हवन-सामग्री की आहुति देना भर है या उससे आगे कुछ और । अधिक व्यापक अर्थों में यज्ञ का अर्थ कदाचित किसी ध्येय की प्राप्ति के लिये दी जाने वाली श्रम की आहुति से है मैं ऐसा मानता हूं । यह श्रम विशुद्ध स्थूल भौतिक स्तर का हो सकता है, अथवा वैचारिक या बौद्धिक स्वरूप का हो सकता है । हर कर्म को संपन्न करने के नियम होते हैं जिनके ज्ञान के साथ हि वह कर्म किया जावे शायद यही मन्त्रद्रष्टा का मन्तव्य है ।
इस मन्त्र का तात्पर्य कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है: जिस (मन) के द्वारा यज्ञ में उस (यज्ञ) की क्रियाविधि के समुचित ज्ञान के रहते हुए कर्मशील, धैर्यवान मनीषीजन कर्म सम्पादित करते हैं, जो अपूर्व है, यज्ञकार्य की क्षमता रखता है, और जो प्रजाओं (मानवों) के अन्तस् में स्थित रहता है वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।।
यहां अपूर्व से मतलब है जिसके पूर्व कोई (ज्ञानेन्द्रिय) नहीं है । जहां ज्ञानेन्द्रियों का स्थूल भौतिक स्वरूप होता है वहीं मन का कोई भौतिक रूप नहीं है । फिर भी वह हमारे भीतर कहीं स्थित है । वैदिक साहित्य में जिस यज्ञ शब्द का प्रयोग यत्र-तत्र दिखाई देता है उसका वास्तविक अर्थ क्या है मैं समझ नहीं पाया हुं । क्या यह अग्नि में हवन-सामग्री की आहुति देना भर है या उससे आगे कुछ और । अधिक व्यापक अर्थों में यज्ञ का अर्थ कदाचित किसी ध्येय की प्राप्ति के लिये दी जाने वाली श्रम की आहुति से है मैं ऐसा मानता हूं । यह श्रम विशुद्ध स्थूल भौतिक स्तर का हो सकता है, अथवा वैचारिक या बौद्धिक स्वरूप का हो सकता है । हर कर्म को संपन्न करने के नियम होते हैं जिनके ज्ञान के साथ हि वह कर्म किया जावे शायद यही मन्त्रद्रष्टा का मन्तव्य है ।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु । यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, ३)
अर्थात् जो प्रजाओं (मनुष्यों) में प्रज्ञा (गहन तथा निर्णयात्मक सामर्थ्य वाला ज्ञान), चेतना और धैर्य रूप में अवस्थित है (या इनका आधार है), जो प्रजाओं के अन्तस् में अमृत (मरणशीलता से परे) सत्ता एवं ज्योति के रूप में विद्यमान रहता है, और जिसके अभाव में कोई भी कर्म कर पाना सम्भव नहीं, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
मन को ज्योतिर्मय कहा गया है क्योंकि इन्द्रियों से प्राप्त बाह्य ज्ञान की समीक्षा मन के द्वारा ही होती है, वही उस ज्ञान को प्रकाशित करता है, उस ज्ञान को ग्रहण करता है । यह मन ही है जिससे प्रेरित होकर कर्मेन्द्रिय कर्म करने को उद्यत होते हैं । मानवशरीर की सक्रियता के पीछे मन ही कारण है शायद यही भाव इस मन्त्र में निहित है
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् । येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, ४)
इस मन्त्र के अनुसार जिस अमृतमय (जो मरणशील नहीं) मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्यत्काल का ज्ञान संगृहीत रह्ता है और जिस मन के द्वारा अग्निष्टोम नाम के दीर्घकालिक यज्ञ को विस्तार दिया जाता है जिसमें सात अग्निहोत्रों की भूमिका रहती है, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः । यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, ५)
जिस मन में ऋचाएं (ऋग्वेद-मन्त्र), साम (सामवेद-मन्त्र) तथा यजुः (यजुर्वेद-मन्त्र) प्रतिष्ठित रह्ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे रथचक्र के आरे उसके केन्द्र पर गुंथे रहते हैं (अर्थात् जिनका मनन एवं उच्चारण मन द्वारा ही होता है), और जिस मन से प्रजाओं (मानवों) की समस्त चेतना शक्ति (पदार्थगत ज्ञान एवं उसकी समीक्षा की सामर्थ्य) ओतप्रोत रहती है, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
ऋचाएं, सामवैदिक मन्त्र तथा समस्त यजुः में निहित प्रार्थनाभाव, लौकिक कर्तव्यभाव तथा आध्यात्मिक दर्शन अन्ततः मन में ही संचित रहते हैं, वही उनका व्याख्याकार, उन्हें स्वीकार करने वाला और स्थूल शरीर को उनके अनुकूल चलाने वाला है । वैदिक दर्शन में चित्त तथा बुद्धि मन के चिन्तन-मनन की शक्तियों को इंगित करते हैं । इन्हें ठीक-ठीक कैसे परिभाषित किया जाये मैं सोच नहीं पाता । बहुत-सी बातें अनुभूति की अधिक होती हैं और मात्र श्रव्य शब्दों से उनकी प्रतीति नहीं हो पाती है ।
षारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभिशुभिर्वाजिनिव । हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, ६)
जैसे एक कुशल सारथी घोड़ों को हांकता है और उनको चाबुक के द्वारा नियन्त्रण में रखता है वैसे ही जो मन मनुष्यों को आगे बढ़ाता है, जो हृदय में प्रतिष्ठित रहता है, जरावस्था से मुक्त है और अतिवेगशाली है वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।
मन का निवासस्थल हृदय कहा गया है । मनुष्य के मनोभाव इस् देह में कहां रहते हैं ? अवश्य ही यह शरीर में रक्तप्रवाह को नियन्त्रित करने वाले हृदय नाम का अंग नहीं हो सकता । हृदय शब्द जिस अर्थ में यहां प्रयुक्त है क्या वह मस्तिष्क से भिन्न है ? मेरा मत है यह मस्तिष्क को ही इंगित करता है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से विचारों का केन्द्र है ।
मन को अजर तथा अमर कहा गया है, वह सदा युववस्था में रहता है भले ही शरीर वृद्ध हो जाये । कहा ही जाता है कि शरीर बुढ़ाता है पर मन नहीं । हां, हमारे मनोभाव समय के साथ बदलते रहते हैं । मन के अतिवेगशाली होने की बात प्रथम मन्त्र में भी कही गयी है ।
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वैदिक मंत्रों में सुख्यात तथा सर्वाधिक चर्चित मंत्र श्रीगायत्री मंत्र है जिसके मंत्रद्रष्टा ॠषि विश्वामित्र बताये जाते हैं । मान्यता है कि वैदिक मंत्रों का अंतर्ज्ञान अलग-अलग ॠषियों को समय के साथ होता रहा और कालांतर में मुनि व्यास ने उन्हें तीन वेदों के रूप में संकलित एवं लिपिबद्ध किया । उक्त मंत्र 24 मात्राओं के गायत्री छन्द में निबद्ध है और शायद इसीलिए इसे गायत्री मंत्र नाम दिया गया है ।
यह एक रोचक तथ्य है कि श्रीगायत्री मंत्र का उल्लेख तीनों प्रमुख वेदों में है और इस प्रकार लिपिबद्ध किया गया है-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
(1) यह ॠग्वेद-संहिता के मण्डल 3, सूक्त 62 में 10वां मंत्र (ॠचा) है ।
(2) यजुर्वेद-संहिता के अध्याय 3 में यह 35वें मंत्र (यजुः) के रूप में उल्लिखित है और इसका पुनरुल्लेख अध्याय 22 में 9वें तथा अध्याय 30 में 2रे मंत्र के तौर पर भी हुआ है ।
(3) सामवेद का यह 1462वां (अध्याय 3, खण्ड 4, मंत्र 3) मंत्र (साम) है ।
(2) यजुर्वेद-संहिता के अध्याय 3 में यह 35वें मंत्र (यजुः) के रूप में उल्लिखित है और इसका पुनरुल्लेख अध्याय 22 में 9वें तथा अध्याय 30 में 2रे मंत्र के तौर पर भी हुआ है ।
(3) सामवेद का यह 1462वां (अध्याय 3, खण्ड 4, मंत्र 3) मंत्र (साम) है ।
माना जाता है कि उक्त तीनों वेदों का संबंध अध्यात्म तथा दर्शन से रहा है । ॠग्वेद को पारलौकिक ज्ञान का भंडार माना जाता है जब कि यजुर्वेद यज्ञादि अनुष्ठानों को संपन्न करने में प्रयुक्त मंत्रों का संग्रह है । धार्मिक अनुष्ठानों में गायन में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन सामवेद क रूप में जाना जाता है । अथर्ववेद इन तीनों से हटकर है और इसमें लौकिक उपयोग की बातें संग्रहीत हैं, जैसे आयुर्विज्ञान, आयुधविज्ञान, अर्थशास्त्र इत्यादि से संबंधित जानकारी ।
ॠग्वेद-संहिता के श्रीमद्सायणाचार्यरचित भाष्य और यजुर्वेद-संहिता के श्रीमद्उमटाचार्य तथा श्रीमद्महीधर द्वारा रचित भाष्यों के अनुसार उक्त मंत्र की व्याख्या यूं की जा सकती हैः-
सविता (सवितृ) उस परमात्मा का संबोधन है जिससे समस्त सृष्टि का प्रसव हुआ है अर्थात् जिससे मूर्त एवं अमूर्त सभी कुछ उत्पन्न हुआ है । सभी पापों का भर्जन करने वाली उसकी सामर्थ्य या शक्ति को भर्ग कहा गया है । मंत्र में निहित भाव है- “उस सविता देवता के वरण किये जाने योग्य अर्थात् प्रार्थनीय भर्ग का हम ध्यान करें । वह सविता या उसका भर्ग जो हमारी बुद्धियों को (सत्कर्मों के प्रति) प्रेरित करता है ।” (तस्य सवितुः देवस्य वरेण्यं भर्गः (वयम्) धीमहि यः नः धियः प्रचोदयात् ।)
यहां इतना और कहना समीचीन होगा कि यजुर्वेद-संहिता के अध्याय 36 के मंत्र 3 का पाठ इस प्रकार है:-
भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
यह पहले उल्लिखित मंत्र से इस बात में भिन्न है कि उसके आरंभिक वाक्यांश ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ है । यह पदसमूह दरअसल श्रीगायत्री मंत्र का अनिवार्य भाग नहीं है । किंतु व्यवहार में लोग उपर्युक्त स्वरूप में ही इस मंत्र को जानते आ रहे हैं । आरंभ के ये तीन शब्द ‘भूः’, ‘भुवः’ एवं ‘स्वः’ व्याहृतियांकही जाती हैं और शाब्दिक दृष्टि से ये क्रमशः पृथ्वीलोक, अंतरिक्षलोक तथा स्वर्गलोक को इंगित करते हैं । वैदिक मान्यतानुसार पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक के मध्य में अंतरिक्षलोक है ।
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परब्रह्म की प्राप्ति विषयक मुण्डकोपनिषद् के वचन
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।3।।
(मुण्डकोपनिषद्, मुंडक 3, खंड 2)
(न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन, यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम् ।)
अर्थ – यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है उसेयह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।
यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है ।
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।
(यथा पूर्वोक्त)
(न अयम् आत्मा बल-हीनेन लभ्यः न च प्रमादात् तपसः वा अपि अलिंगात् एतैः उपायैः यतते यः तु विद्वान् तस्य एषः आत्मा विशते ब्रह्म-धाम ।)
अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।
यहां पर बलहीन का अर्थ सामान्य दैहिक अथवा बौद्धिक बल से नहीं है । जिसके पास आत्मसंयम का सामर्थ्य है वही बलवान है क्योंकि वह विपरीत परिस्थिति में भी अविचलित रह सकता है । किंतु ऐसा व्यक्ति भी मोक्ष्य के योग्य नहीं होता । संन्यास का अर्थ है सांसारिक बंधनों से स्वयं को मुक्त करना । जिस व्यक्ति को कोई लालसा नहीं, जो संभी बंधन तोड़ चुका हो, जिसका न कोई अपना रह गया हो और न पराया वह वीतराग संन्यासी कहलाता है । ऐसा संन्यासी बनना ही परब्रह्म के ज्ञान का उपाय है ।
संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागः प्रशान्ताः ।
ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ।।5।।
(यथा पूर्वोक्त)
(संप्राप्य एनम् ऋषयः ज्ञान-तृप्ताः कृत-आत्मानः वीत-रागः प्रशान्ताः ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीराः युक्त-आत्मानः सर्वम् एव आविशन्ति ।)
अर्थ – आत्मा के यथार्थ को पा लेने पर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त, और परम शान्त हो जाते हैं । वे धीर पुरुष उस सर्वव्यापी परब्रह्म को सर्वत्र प्राप्त करते हुए और उससे युक्तचित्त होकर उसी संपूर्ण ब्रह्म में प्रवेश कर जाते हैं, यानी उससे एकाकार हो जाते हैं ।
इस मंत्र की व्याख्या में कहा गया है कि आत्मा के मूलस्वरूप का ज्ञान पा चुकने वाले ऋषि के लिए उसका शरीर एक अस्थाई सांसारिक बंधन रह जाता है । उसके लिए देहत्याग पर परब्रह्म में लीन होना वैसा ही होता है जैसा किसी घड़े के टूटकर बिखरने पर उसके भीतर के आंशिक आकाश और बाह्य असीमित आकाश के बीच का भेद समाप्त हो जाता है । युक्तचित्त की स्थिति में केवल ब्रह्म का ही भाव उसके मन में रह जाता है और सांसारिक समस्त वस्तुओं में उसी ब्रह्म के दर्शन होने लगते है । उसके लिए कुछ भी सांसारिक बांछनीय नहीं रह जाता है । प्राचीन काल में वैदिक चिंतकों को कदाचित घड़े का दृष्टांत ही उपयुक्त लगा होगा । आज विकल्पतः हवा भरे गुब्बारे का दृष्टांत सोचा जा सकता है जिसके, भीतर का आकाश बाह्य आकाश से पूरी तरह विभक्त रहता है ।
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श्वेताश्वर उपनिषद् में आत्मा का भौतिक देह से किस प्रकार का संबंध है इसे सोदाहरण अधोलिखित मंत्र में स्पष्ट किया गया है:
तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिरापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।
एवमात्मा९९त्मनि गृह्यते९सौ सत्येनैनं तपसा यो९नुपश्यति ।।(श्वेताश्वरोपनिषद्, अध्याय १, मंत्र १५)
{तिलेषु तैलं, दधनि सर्पिः, स्रोतःसु आपः, अरणीषु च अग्निः इव एवम् आत्मनि असौ आत्मा (वर्तते) यः एनं सत्येन तपसा (च) अनुपश्यति (तेन) गृह्यते ।}
तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिरापः स्रोतःस्वरणीषु चाग्निः ।
एवमात्मा९९त्मनि गृह्यते९सौ सत्येनैनं तपसा यो९नुपश्यति ।।(श्वेताश्वरोपनिषद्, अध्याय १, मंत्र १५)
{तिलेषु तैलं, दधनि सर्पिः, स्रोतःसु आपः, अरणीषु च अग्निः इव एवम् आत्मनि असौ आत्मा (वर्तते) यः एनं सत्येन तपसा (च) अनुपश्यति (तेन) गृह्यते ।}
अर्थात् जिस प्रकार तिलों (तिल के दानों) में अदृश्य रूप से तेल मौजूद रहता है, दही में घी, ऊपरी तौर पर सूखे नजर आ रहे जल-स्रोतों के भीतर पानी, और अरणियों में अग्नि की विद्यमानता रहती है, उसी प्रकार देही के अंदर यानी भौतिक काया के भीतर आत्मा का निवास रहता है । जो व्यक्ति सत्य तथा तप के माध्यम से उसे देखने या पहचानने का प्रयत्न करता है उसी को उसकी प्राप्ति होती है, इस तथ्य का साक्षात्कार हो पाता है ।
शमी नाम के वृक्ष की लकड़ी को अरणि कहा गया है । वैदिक युग में इनका प्रयोग यज्ञादि कायों में इंधन (समिधा) के तौर पर होता था । शमी की सूखी लकड़ियों को परस्पर रगड़कर आग पैदा की जाती थी ऐसा कहा जाता है । तिल से तेल, दही से घी अथवा शमी-काष्ठ से अग्नि प्राप्त करने के लिए समुचित उपक्रम करना पड़ता है । इन वस्तुओं को देखने भर से उनसे संबंधित अदृष्य तत्त्वों की प्रतीति नहीं हो जाती है । इसी प्रकार आत्मा के अस्तित्व के ज्ञान की प्राप्ति का भी मार्ग है । यह मार्ग है सत्य एवं तप का जीवनयापन – तप अर्थात् आत्मसंयम, क्रोधादि आवेगों पर नियंत्रण, काम-वासनाओं से मुक्ति के प्रयास, इत्यादि ।
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बर्हापीडं नटवर वपु: कर्णयोकर्निकारम !
विभ्रद्वासः कनककपिशम वैजयंती च मालां !!
रन्ध्रान वेणोंरधरशुधया पुरयन गोप्वृँदै !
वृन्दारन्यम स्वपदरमनम प्राविशद गीत कीर्तिः!! .
"श्री कृष्ण" गोप बालको के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे है....
उन्होंने मस्तक पर मोर मुकुट धारण किया है, और कानो में कनेर के पीले-पीले पुष्प , शरीर पर पीला पीताम्बर और गले में पांच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से बनी वैजयंती माला पहनी है. रंग-मंच पर अभिनय करने वाले श्रेष्ठ नट जैसा अति सुन्दर वेश है. उनके पीछे- पीछे गोप बालक उनकी लोक पावन कीर्ति का गान कर रहे है, इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ यह "वृन्दावन" धाम उनके चरण चिन्हों से अधिक रमणीय बना है ! .
धन्यवाद | मुझे उपनिषद मंत्र और उनके अर्थ हिंदी में चाहिए थे , आप के ब्लॉग पर सब प्राप्त हुआ धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद | मुझे उपनिषद मंत्र और उनके अर्थ हिंदी में चाहिए थे , आप के ब्लॉग पर सब प्राप्त हुआ धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंमैं माण्डूक्य उपनिषद् पर विशिष्ट कार्य कर रहा हूँ शीघ्र ही ब्लाग पर दिखाई देगा।
जवाब देंहटाएं