प्रतिक्रिया
messaje from Anjali:[2:12pm, 4/29/2015]
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परमात्मा का "शुक्र" करने से
"खुशियो" मे बदल जाती है। **************
"क्योकि
इस धरा का
इस धरा पर
सब धरा रह जायेगा।"
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कितनी सरल भाषा में वेद वाक्य कह दिया गया है, इसके लिए साधुवाद। लेकिन इसहो के साथ इसके पूर्व का आधा वाक्य वेद की इस ऋचा में है।
"क्योकि
इस धरा का
इस धरा पर
सब धरा रह जायेगा।"
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कितनी सरल भाषा में वेद वाक्य कह दिया गया है, इसके लिए साधुवाद। लेकिन इसहो के साथ इसके पूर्व का आधा वाक्य वेद की इस ऋचा में है।
ॐ ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥१॥ यजुर्वेद ४०/१।।
या सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी मौजूद है उसमे परमात्मा व्याप्त है (यानि जर्रे-जर्रे में वह समाया है) उसका ध्यान रखते हुए त्यागपूर्वक उसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ. यह धन किसका है अर्थात किसी का नही।
(this message has been published on our web site
http://sarjanasajhamanch.blogspot.in/)
इस साईट पर पूरा उपनिषद भी साथ ही पब्लिश कर दिया है। अपने नीले अक्ष्रों को टच करते ही यह साइट खुल सकती है।
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OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO
ॐ गं गणपतये नमः
नमो व्रातपतये नमो गणपतये
नमो प्रमथपतये नमस्तेस्तु लम्बोदराय
एकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय
श्रीवरदमूर्तये नमो नमः.
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या सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी मौजूद है उसमे परमात्मा व्याप्त है (यानि जर्रे-जर्रे में वह समाया है) उसका ध्यान रखते हुए त्यागपूर्वक उसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ. यह धन किसका है अर्थात किसी का नही।
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इस साईट पर पूरा उपनिषद भी साथ ही पब्लिश कर दिया है। अपने नीले अक्ष्रों को टच करते ही यह साइट खुल सकती है।
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वो जो सब के ऊपर बैठा है जो विश्व-सृजन करता है, वाही तो जोड़ता है। हम तो कोशिश भर करते है। लेकिन कोशिश ऐसी हो की जमीं भी जोड़े और जान भी।
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ॐ गं गणपतये नमः
नमो व्रातपतये नमो गणपतये
नमो प्रमथपतये नमस्तेस्तु लम्बोदराय
एकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय
श्रीवरदमूर्तये नमो नमः.
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1:59 PM (10 minutes ago)
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प्रिय आत्मन !
मेरे अपने विचार....
मेरा देश-
जहाँ की भूमि मेरी मातृभूमि है
जहाँ गंगा माँ संस्कृति और जीवन लेकर बहती है
गौ, गीता, गायत्री, दुर्गा और देवियाँ मातृत्व की साक्षात स्वरूप है
जहाँ कौशल्या, यशोदा, अंजनी जैसी माताएँ ईश्वर के अवतरण की माध्यम बनी हो
जहाँ मातृत्व को पितृत्व से बडी मान्यता हो
वहाँ माँ और मात्रत्व के बगैर एक क्षण की भी कल्पना असंभव है,
वहाँ इसे एक दिन मे समेटना सागर को हथेली पर रखने जैसा है
वहाँ के शेष 364 दिन का क्या होगा
जहाँ ऋषि कहता है ----
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी--है ।
एक जलता हुआ प्रश्न सामने खडा है---हम कहाँ जा रहे है ?
मेरे अपने विचार....
मेरा देश-
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी--है ।
एक जलता हुआ प्रश्न सामने खडा है---हम कहाँ जा रहे है ?
रामनारायण सोनी
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प्रिय आत्मन !
मेरे अपने विचार के पिछले अंक में आपने माँ शीर्षक से संक्षेपिका पढ़ी।
जिन्होंने नहीं पढ़ी शायद मैं उनके कोप से बच गया। जिनको अच्छी लगी उनको साधुवाद, जिन्हे ठीक नहीं लगी उनका मैं गुनहगार हूँ। मैं उनका आभारी हूँ जिन्होंने मेरे समानांतर प्रतिक्रिया दी।
आज मैं उन सभी मातृ-भक्तो को नमन करता हूँ। कल के बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए पुनः निवेदन करता हूँ।
मेरा देश-
जहाँ की भूमि मेरी मातृभूमि है
उनका देश-भक्तों का अभिनन्दन जो मातृभूमि के ऋण को स्वीकार करते है।
जहाँ गंगा माँ संस्कृति और जीवन लेकर बहती है
उनको श्रद्धावान बेटों को नमन जो माँ गंगा को देवपगा समझते हैं उसे मैला करने और होने से बचाते हैं।
गौ, गीता, गायत्री, दुर्गा और देवियाँ मातृत्व की साक्षात स्वरूप है
उन गौसुतों, देवी मान के भक्तों को प्रणाम करता हूँ जो इन्हे अपनी माँ के सदृश पालक मान कर उनकी पूजा करते हैं।
जहाँ कौशल्या, यशोदा, अंजनी जैसी माताएँ ईश्वर के अवतरण की माध्यम बनी हो
उन दोनों - माओं और परमात्मस्वरूप प्रभु के अवतरण का स्मरण भर कितना पावन है।
जहाँ मातृत्व को पितृत्व से बडी मान्यता हो
उनका शत शत वंदन जो माता-पिता को श्रवण की तरह आज्ञापालक और उनकी इच्छाओं की पूर्ती करते हों।
कल आभासी दुनिया का बहुत बड़ा त्यौहार था। हम सब किसी न किसी रूप में उसमे उछल -कूद रहे थे। आज ज्वार थमा तो उक्त प्रतिक्रिया दे रहा हूँ। मै उन श्रवण कुमारों का आभारी हूँ और उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनके जिगर में कल की संवेदनाएं चिस्थायी हों। वर्ष के शेष ३६४ दिनों का आज पहला दिन और शेष ३६३ दिन भी बीते कल की तरह के हो।
माता केवल जननी नहीं वह राम,कृष्णा, गौतम, गांधी ही नहीं हर आम और ख़ास को इस जगत में उंगली पकड़ कर चलना सिखाती है।
मेरे अपने विचार के पिछले अंक में आपने माँ शीर्षक से संक्षेपिका पढ़ी।
जिन्होंने नहीं पढ़ी शायद मैं उनके कोप से बच गया। जिनको अच्छी लगी उनको साधुवाद, जिन्हे ठीक नहीं लगी उनका मैं गुनहगार हूँ। मैं उनका आभारी हूँ जिन्होंने मेरे समानांतर प्रतिक्रिया दी।
आज मैं उन सभी मातृ-भक्तो को नमन करता हूँ। कल के बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए पुनः निवेदन करता हूँ।
मेरा देश-
उनका देश-भक्तों का अभिनन्दन जो मातृभूमि के ऋण को स्वीकार करते है।
उनको श्रद्धावान बेटों को नमन जो माँ गंगा को देवपगा समझते हैं उसे मैला करने और होने से बचाते हैं।
उन गौसुतों, देवी मान के भक्तों को प्रणाम करता हूँ जो इन्हे अपनी माँ के सदृश पालक मान कर उनकी पूजा करते हैं।
उन दोनों - माओं और परमात्मस्वरूप प्रभु के अवतरण का स्मरण भर कितना पावन है।
उनका शत शत वंदन जो माता-पिता को श्रवण की तरह आज्ञापालक और उनकी इच्छाओं की पूर्ती करते हों।
कल आभासी दुनिया का बहुत बड़ा त्यौहार था। हम सब किसी न किसी रूप में उसमे उछल -कूद रहे थे। आज ज्वार थमा तो उक्त प्रतिक्रिया दे रहा हूँ। मै उन श्रवण कुमारों का आभारी हूँ और उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनके जिगर में कल की संवेदनाएं चिस्थायी हों। वर्ष के शेष ३६४ दिनों का आज पहला दिन और शेष ३६३ दिन भी बीते कल की तरह के हो।
माता केवल जननी नहीं वह राम,कृष्णा, गौतम, गांधी ही नहीं हर आम और ख़ास को इस जगत में उंगली पकड़ कर चलना सिखाती है।
भूल-चूक लेनी-देनी
रामनारायण सोनी
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प्रिय आत्मन !
स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य विख्यात है । वे कहते थे:
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञान जन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी । कदाचित् अंधकार से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था । वे चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग खोजें । स्वामीजी इस कथन के महत्त्व को कदाचित् ऐहिक जीवन के संदर्भ देखते थे ।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)
रामनारायण सोनी
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प्रिय आत्मन !
स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य विख्यात है । वे कहते थे:
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञान जन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी । कदाचित् अंधकार से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था । वे चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग खोजें । स्वामीजी इस कथन के महत्त्व को कदाचित् ऐहिक जीवन के संदर्भ देखते थे ।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)
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