ईशावास्योपनिषद्
१८ मन्त्र
आज से क्रमशः
अनुक्रम १
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्ति:
अन्वयार्थ :-
ॐ = सच्चिदानन्दघन; अदः = वह परब्रह्म; पूर्णम् = सब प्रकारसे पूर्ण है; इदम् यह (जगत् भी); पूर्णम्- पू्र्ण (ही) है; (क्योंकि) पूर्णात् = उस पूर्ण (परब्रह्म )-से ही; पूर्णम् = यह पूर्ण; उदच्यते उत्पन हुआ है; पूर्णस्य = पूर्णके;
पूर्णम् = पूर्णको; आदाय = निकाल लेनेपर (भी); पूर्णम् = पूर्ण; एव = ही; अवशिष्यते = बच रहता है।
व्याख्या :-
वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकारसे सदा- सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत् भी उस परब्रह्म से पूर्ण है; क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरूषोत्तमसे ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्मकी पूर्णतासे जगत् पूर्ण होनेपर भी वह परिपूर्ण है। उस पूर्णमें से पूर्णको निकाल लेनेपर भी वह पूर्ण ही बच रहता है।
ईशावास्योपनिषद्
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अनुक्रम २
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम ॥1॥
तुम्हारे घर के दरवाजे में आग है, जो कपड़े पहन कर बैठे हो उसमें आग है, किताबों में आग है, तेल में आग है। यह आग तुम्हे दिखाई नहीं देती। यह जो मूर्त वस्तु है इसमें कोई अमूर्त है, सन्निहित है, सन्निविष्ट है, समाहित है। दूध से मक्खन बाहर निकाला तो पता चला यह दूध में था पर दिखा नहीं। दूध में पानी है पर दिखा नहीं। दूध में वे ठोस कण जो पदार्थ विज्ञान में कार्बन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन से बने कम्पाउण्ड हैं पर दिखते नहीं। संसार में जितने पदार्थ हैं उन्हें झूम इन करके आगे चलते जावें तो अन्त में एक पार्टीकल तक पहुँच जावेंगे। यह पार्टीकल भी अन्तिम क्रम नहीं है। अब पदार्थविज्ञान यह भी सिद्ध कर चुका है कि यह अन्तिम पार्टीकल भी एक स्पन्दन मात्र है, वाइब्रेशन है। वेद इसे नाद कहता है। लेकिन यह नाद अनहद नाद है। अनहद नाद याने अनाहत नाद। अनाहत मतलब इसे तुमने, हमने या किसी मशीन ने नहीं पैदा किया है, जो स्वकीय है। वही ब्रह्म है, यही ब्रह्म है, केवल ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्म है। जो जो भी जड़-चेतन इस समग्र ब्रह्माण्ड में दृश्य-अदृश्य है सब का सब व्याप्त है, परिपूर्ण है उस इस ब्रह्म से। अर्थात् वह सर्व व्यापक है। वह सब में है और सब कुछ उसके अनुशासन में है। वह ईशन अर्थात् अनुशासन में रखता है इसलिये ईश है, ईश्वर है।
जो दिखता है, जो महसूस, होता है, जो अस्तित्वमान है, जो स्थूल है, सूक्ष्म है वह समग्र है। यह समग्र ही जगत है। इस समग्र में वही ईश्वर नित्य निवास करता है। बनाता भी है, बनता भी है, बना भी वही है। वही चल भी रहा है, चलाता भी है।
भोग क्या है इसे माण्डूक्य उपनिषद् के सूत्र से समझा जा सकता है। उपनिषद की तीसरे मंत्र में आता है "एकोनविंशतिमुखः स्थूल भुग्वैश्वानरः"। इस सम्पूर्ण सृष्टि का समष्टि स्वरूप वैश्वानर है। यही जाग्रत अवस्था में पदार्थों का भोग भी करता है। भोग तात्पर्य है आहार लेना। जीवधारी अपने उन्नीस मुखों से आहार लेता है जिसमें मुख्यतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। अर्थात् देखना, सुनना, रस लेना;खाना, स्पर्श महसूस करना आदि इनका आहार है। यह आहार ही भोग है। यह भोग्य पदार्थ भी किसका धन है? किसीका नहीं। प्रत्येक जीव भोक्ता है। यह भोग्य पदार्थ इसके नहीं है पर इसके लिये है। यही भाव त्यक्त भाव है। त्यक्त भाव से भोग करना अलिप्त भाव है। सच तो यह है कि बिना भोग के कोई रह नहीं सकता पर यह ईश्वर की करुणा और अनुग्रह है जो हमें प्राप्य है। वह भूख देता है तो भक्ष्य भी वही देता है। इसी त्यक्त भाव से इसे ग्रहण करें।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। श्रीमद्भगवद्गीता 5/22।।
इसमें 'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' पद का तात्पर्य है--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। उसमें रम जाना लिप्तभाव है। ये भोग स्थाई नही है, अनित्य है। भोग का अनित्य होना ही त्यक्त भाव है।
रामनारायण सोनी
२०.१.२५
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इशावास्योपनिषद्
अनुक्रम-३
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।।२।।
भावार्थ:-
इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे कर्म फल का लेप ना हो ।।
-जिजीविषा और कर्मयोग-
पंछी सुबह-सुबह पेड़ पर इसलिए चहचहाते हैं कि उनमें जागते ही एक उल्लास होता है। आज उन्हें जी-भर जीने के लिए उड़ना है।
इनकी इस क्रिया-प्रकिया में भी संदेश हैं। जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा यानी जिजीविषा है। कर्मनिष्ठा है इसलिये अपने कर्म के लिये उद्यत हैं। आशा और विश्वास से भरे भरे से हैं कि वे अपने कर्मक्षेत्र की ओर निकल पड़े हैं और उन्हें अपने जीने के लिये जरूरी आहार अवश्य मिलेगा। चाहे आँधियाँ चले, बारिश हो, सर्दी हो गर्मी हो, मौसम चाहे कैसा भी हो वे गन्तव्य तक पहुंचेंगे ही। वे आश्वस्त हैं कि उनके पंखों में इतनी ऊर्जा है कि वे जावेंगे भी और जा कर वापस लौटेंगे भी। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितना उन्हें जीवन जीने के लिये जरूरी है। प्रकृति भी उन्हें अपना ही हिस्सा मानती है इसलिये दाना पानी ले कर बैठी है।
उनकी चहचहाट का स्वर समवेत होता है। यह उनका पारम्परिक सहगान है। इस गान में सामूहिक उत्सव प्रियता है, सामाजिक समरसता है, सह-अस्तित्व का संकल्प है, और जीवन के किसी भी खालीपन को उत्साह से भरने का उपक्रम है। किसने किससे से कहा कि चलो चहको! अर्थात् यह समवेत एक उपदेश नहीं संस्कार है, वृत्ति है, स्वभाव है और सांकेतिक आमन्त्रण है। शायद उनमें से ही कोई पंछी है जो इस गान को उकेरता है, याने प्रारम्भ करता है और सभी अपना स्वर मिलाते हैं।
लगता है स्वर उनके अपने शब्दकोष और कण्ठ से निकले वे आराधना-अर्चना के स्वर हैं जो उषा और संध्या का वन्दन-अभिनन्दन करते हैं। ये गान अपना स्वर, लय, ताल, स्पन्दन और नाद ले कर निकलते हैं। हर एक स्वर की और समवेत गान की अपनी नैसर्गिक पहिचान है। कोई पंछी यदि गा नहीं पाता है तो लगता है उसके लिये सब गा रहे है।
वे शाम को लौट कर इसलिए चहचहाते हैं कि उन्होंने आज जी भर कर जिया है। उनके इन समवेत स्वरों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव है, रात्रि का स्वागत है और शान्ति का आह्वान भी है। उनमें से अगर कोई उदास भी रह गया है तो उल्लास का समवेत स्वर उसमे रही कमी को भर देगा। घर वापसी में उनके अपने लिये चोंच में कोई दाना संग्रहण के लिये नहीं होता है लेकिन अगर कोई दाना है भी तो घोसले में बैठे चूजों के लिए होता है जो अभी आश्रित हैं; तब तक जब तक कि वे स्वयं उड़ नहीं लेते। वे भी तो कल उड़ेंगे और उड़ कर पा लेंगें। ये जानते हैं कि कभी वे भी चूजे थे। इस उपक्रम में अपरिग्रह के जीवित संदेश हैं।
ये पंछी योगी है, कर्मयोगी हैं। इनके अपने यम, नियम हैं, प्रकृति के प्रदत्त प्राण-आयाम हैं। अपने स्वकर्मों में निरत हैं। शायद जानते हैं कि योग: कर्मसु कौशलं। ये जानते होंगे कि
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।।२।।
और
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।श्रीमद्भगवद्गीता 2/47।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2/48।।
हे धनञ्जय ! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
रामनारायण सोनी
१८.१.२५