गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

ईशावास्योपनिषद् एक विहंगावलोकन

ईशावास्योपनिषद्
१८ मन्त्र

आज से क्रमशः
अनुक्रम १

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्ति:
अन्वयार्थ :-
ॐ = सच्चिदानन्दघन; अदः = वह परब्रह्म; पूर्णम् = सब प्रकारसे पूर्ण है; इदम् यह (जगत् भी); पूर्णम्- पू्र्ण (ही) है; (क्योंकि) पूर्णात् = उस पूर्ण (परब्रह्म )-से ही; पूर्णम् = यह पूर्ण; उदच्यते उत्पन हुआ है; पूर्णस्य = पूर्णके;
पूर्णम् = पूर्णको; आदाय = निकाल लेनेपर (भी); पूर्णम् = पूर्ण; एव = ही; अवशिष्यते = बच रहता है।
व्याख्या :-
वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकारसे सदा- सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत् भी उस परब्रह्म से पूर्ण है; क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरूषोत्तमसे ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्मकी पूर्णतासे जगत् पूर्ण होनेपर भी वह परिपूर्ण है। उस पूर्णमें से पूर्णको निकाल लेनेपर भी वह पूर्ण ही बच रहता है।

ईशावास्योपनिषद्
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अनुक्रम २

ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम ॥1॥

तुम्हारे घर के दरवाजे में आग है, जो कपड़े पहन कर बैठे हो उसमें आग है, किताबों में आग है, तेल में आग है। यह आग तुम्हे दिखाई नहीं देती। यह जो मूर्त वस्तु है इसमें कोई अमूर्त है, सन्निहित है, सन्निविष्ट है, समाहित है। दूध से मक्खन बाहर निकाला तो पता चला यह दूध में था पर दिखा नहीं। दूध में पानी है पर दिखा नहीं। दूध में वे ठोस कण जो पदार्थ विज्ञान में कार्बन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन से बने कम्पाउण्ड हैं पर दिखते नहीं। संसार में जितने पदार्थ हैं उन्हें झूम इन करके आगे चलते जावें तो अन्त में एक पार्टीकल तक पहुँच जावेंगे। यह पार्टीकल भी अन्तिम क्रम नहीं है। अब पदार्थविज्ञान यह भी सिद्ध कर चुका है कि यह अन्तिम पार्टीकल भी एक स्पन्दन मात्र है, वाइब्रेशन है। वेद इसे नाद कहता है। लेकिन यह नाद अनहद नाद है। अनहद नाद याने अनाहत नाद। अनाहत मतलब इसे तुमने, हमने या किसी मशीन ने नहीं पैदा किया है, जो स्वकीय है। वही ब्रह्म है, यही ब्रह्म है, केवल ब्रह्म है, ब्रह्म ही ब्रह्म है। जो जो भी जड़-चेतन इस समग्र ब्रह्माण्ड में दृश्य-अदृश्य है सब का सब व्याप्त है, परिपूर्ण है उस इस ब्रह्म से। अर्थात् वह सर्व व्यापक है। वह सब में है और सब कुछ उसके अनुशासन में है। वह ईशन अर्थात् अनुशासन में रखता है इसलिये ईश है, ईश्वर है। 
जो दिखता है, जो महसूस, होता है, जो अस्तित्वमान है, जो स्थूल है, सूक्ष्म है वह समग्र है। यह समग्र ही जगत है। इस समग्र में वही ईश्वर नित्य निवास करता है। बनाता भी है, बनता भी है, बना भी वही है। वही चल भी रहा है, चलाता भी है। 
भोग क्या है इसे माण्डूक्य उपनिषद् के सूत्र से समझा जा सकता है। उपनिषद की तीसरे मंत्र में आता है "एकोनविंशतिमुखः स्थूल भुग्वैश्वानरः"। इस सम्पूर्ण सृष्टि का समष्टि स्वरूप वैश्वानर है। यही जाग्रत अवस्था में पदार्थों का भोग भी करता है। भोग तात्पर्य है आहार लेना। जीवधारी अपने उन्नीस मुखों से आहार लेता है जिसमें मुख्यतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। अर्थात् देखना, सुनना, रस लेना;खाना, स्पर्श महसूस करना आदि इनका आहार है। यह आहार ही भोग है। यह भोग्य पदार्थ भी किसका धन है? किसीका  नहीं। प्रत्येक जीव भोक्ता है। यह भोग्य पदार्थ इसके नहीं है पर इसके लिये है। यही भाव त्यक्त भाव है। त्यक्त भाव से भोग करना अलिप्त भाव है। सच तो यह है कि बिना भोग के कोई रह नहीं सकता पर यह ईश्वर की करुणा और अनुग्रह है जो हमें प्राप्य है। वह भूख देता है तो भक्ष्य भी वही देता है। इसी त्यक्त भाव से इसे ग्रहण करें। 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। श्रीमद्भगवद्गीता 5/22।।
इसमें 'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' पद का तात्पर्य है--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। उसमें रम जाना लिप्तभाव है। ये भोग स्थाई नही है, अनित्य है। भोग का अनित्य होना ही त्यक्त भाव है।

रामनारायण सोनी
२०.१.२५

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इशावास्योपनिषद्
अनुक्रम-३

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।।२।।

भावार्थ:-
इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे कर्म फल का लेप ना हो ।।

-जिजीविषा और कर्मयोग-

पंछी सुबह-सुबह पेड़ पर इसलिए चहचहाते हैं कि उनमें जागते ही एक उल्लास होता है। आज उन्हें जी-भर जीने के लिए उड़ना है। 
इनकी इस क्रिया-प्रकिया में भी संदेश हैं। जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा यानी जिजीविषा है। कर्मनिष्ठा है इसलिये अपने कर्म के लिये उद्यत हैं। आशा और विश्वास से भरे भरे से हैं कि वे अपने कर्मक्षेत्र की ओर निकल पड़े हैं और उन्हें अपने जीने के लिये जरूरी आहार अवश्य मिलेगा। चाहे आँधियाँ चले, बारिश हो, सर्दी हो गर्मी हो, मौसम चाहे कैसा भी हो वे गन्तव्य तक पहुंचेंगे ही। वे आश्वस्त हैं कि उनके पंखों में इतनी ऊर्जा है कि वे जावेंगे भी और जा कर वापस लौटेंगे भी। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितना उन्हें जीवन जीने के लिये जरूरी है। प्रकृति भी उन्हें अपना ही हिस्सा मानती है इसलिये दाना पानी ले कर बैठी है। 
उनकी चहचहाट का स्वर समवेत होता है। यह उनका पारम्परिक सहगान है। इस गान में सामूहिक उत्सव प्रियता है, सामाजिक समरसता है, सह-अस्तित्व का संकल्प है, और जीवन के किसी भी खालीपन को उत्साह से भरने का उपक्रम है। किसने किससे से कहा कि चलो चहको! अर्थात् यह समवेत एक उपदेश नहीं संस्कार है, वृत्ति है, स्वभाव है और सांकेतिक आमन्त्रण है। शायद उनमें से ही कोई पंछी है जो इस गान को उकेरता है, याने प्रारम्भ करता है और सभी अपना स्वर मिलाते हैं। 
लगता है स्वर उनके अपने शब्दकोष और कण्ठ से निकले वे आराधना-अर्चना के स्वर हैं जो उषा और संध्या का वन्दन-अभिनन्दन करते हैं। ये गान अपना स्वर, लय, ताल, स्पन्दन और नाद ले कर निकलते हैं। हर एक स्वर की और समवेत गान की अपनी नैसर्गिक पहिचान है। कोई पंछी यदि गा नहीं पाता है तो लगता है उसके लिये सब गा रहे है। 
वे शाम को लौट कर इसलिए चहचहाते हैं कि उन्होंने आज जी भर कर जिया है। उनके इन समवेत स्वरों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव है, रात्रि का स्वागत है और शान्ति का आह्वान भी है। उनमें से अगर कोई उदास भी रह गया है तो उल्लास का समवेत स्वर उसमे रही कमी को भर देगा। घर वापसी में उनके अपने लिये चोंच में कोई दाना संग्रहण के लिये नहीं होता है लेकिन अगर कोई दाना है भी तो घोसले में बैठे चूजों के लिए होता है जो अभी आश्रित हैं; तब तक जब तक कि वे स्वयं उड़ नहीं लेते। वे भी तो कल उड़ेंगे और उड़ कर पा लेंगें। ये जानते हैं कि कभी वे भी चूजे थे। इस उपक्रम में अपरिग्रह के जीवित संदेश हैं।
ये पंछी योगी है, कर्मयोगी हैं। इनके अपने यम, नियम हैं, प्रकृति के प्रदत्त प्राण-आयाम हैं। अपने स्वकर्मों में निरत हैं। शायद जानते हैं कि योग: कर्मसु कौशलं। ये जानते होंगे कि 
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।।२।।
और
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।श्रीमद्भगवद्गीता 2/47।।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2/48।।
हे धनञ्जय ! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

रामनारायण सोनी
१८.१.२५

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

GOOD MESSAGES

सद्गुरु 

गांव के मुखिया ने बुद्ध से पूछा  “क्या आप सभी लोगों को एकसमान शिक्षा देते हैं?
बुद्ध प्रतिक्रिया देते हैं,
जो सच्चाई की तलाश में हैं, वे उपजाऊ जमीन की तरह हैं। उन्हें पूर्ण शिक्षा दी जाती है। वे सत्य की खोज के लिए शिक्षा का इस्तेमाल पूरी ईमानदारी और लगन से करते हैं।अपनी बात जारी रखते हुए बुद्ध बताते हैं, “गृहस्थ लोग, औसत दर्जे की उपजाऊ जमीन की तरह होते हैं। वे शिक्षा तो लेना चाहते हैं, लेकिन भिक्षु की तरह पूरा जीवन समर्पित नहीं करना चाहते। मैं उन्हें भी पूरी शिक्षा देता हूं। जो लोग आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहते, वे बंजर जमीन की तरह होते हैं। वे जीवन के दूसरे कामों में उलझे रहते हैं। हालांकि, ऐसे लोगों को भी मैं पूर्ण शिक्षा देता हूं।
 बुद्ध की बात सुनकर गांव का मुखिया चौंक जाता है और कहता है, “आपने उन लोगों को भी ज्ञान क्यों दिया, जो सुनना ही नहीं चाहते? क्या इससे ज्ञान बर्बाद नहीं होता?” बुद्ध जवाब देते हैं, “अगर किसी दिन वे मेरे द्वारा दिए गए ज्ञान का एक वाक्य भी समझ गए और उसे अपने दिल में उतार लिया तो उनका जीवन बदल जाएगा। उस ज्ञान से  उन्हें सच्ची खुशी और सुख मिलेगा।
सद्गुरु सबको सामान रूप से शिक्षा देना अपना धर्म समझते है। अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार शिष्य ज्ञान पाता  है।
सर्जन-साझा-मंच का सत्साहित्य प्रचार अभियान
सम्पूर्ण गीता १८ अध्याय  (एंड्रॉयड कम्पिटेबल)
१. आपके एंड्रॉएड  पर पढ़ने लायक
२. संगीतमय ऑडियो
चाहते हों तो अपना इ;मेल एड्रेस  बताएं
इसके अतिरिक्त  संस्कृत में १८ पुराण, नीतियाँ (जैसे विदुर नीति ), सम्पूर्ण रामचरितमानस (गीताप्रेस) अर्थ सहित सादर आपको प्रेषित कर  जावेगी।


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40 Tips For Better Life From ISHA YOGA

1. Take A 10-30 Minutes Walk Every Day.
And While You Walk, Smile.

2. Sit In Silence For At Least 10 Minutes
Each Day.

3. Sleep For 7 Hours.

4. Live With The 3 E's -- Energy,
Enthusiasm, And Empathy.

5. Play More Games.

6. Read More Books Than You Did In 2014.

7. Make Time To Practice Meditation, Yoga,
And Prayer. They Provide Us With
Daily Fuel For Our Busy Lives.

8. Spend Time With People Over The Age Of
70 & Under The Age Of 6.

9. Dream More While You Are Awake.

10. Eat More Foods That Grow On Trees And
Plants And Eat Less Food That Is
Manufactured In Plants.

11. Drink Plenty Of Water.

12. Try To Make At Least Three People
Smile Each Day.

13. Don't Waste Your Precious Energy On
Gossip.

14. Forget Issues Of The Past. Don't
Remind Your Partner With His/her
Mistakes Of The Past. That Will Ruin Your
Present Happiness.

15. Don't Have Negative Thoughts Or
Things You Cannot Control. Instead
Invest Your Energy In The Positive Present
Moment.

16. Realize That Life Is A School And You
Are Here To Learn. Problems Are
Simply Part Of The Curriculum That Appear
And Fade Away Like Algebra Class
But The Lessons You Learn Will Last A
Lifetime.

17. Eat Breakfast Like A King, Lunch Like A
Prince And Dinner Like A Beggar.

18. Smile And Laugh More.

19. Life Is Too Short To Waste Time Hating
Anyone. Don't Hate Others.

20. Don't Take Yourself So Seriously. No
One Else Does.

21. You Don't Have To Win Every Argument.
Agree To Disagree.

22. Make Peace With Your Past So It Won't
Spoil The Present.

23. Don't Compare Your Life To Others'.
You Have No Idea What Their Journey
Is All About. Don't Compare Your Partner
With Others.

24. No One Is In Charge Of Your Happiness
Except You.

25. Forgive Everyone For Everything.

26.. What Other People Think Of You Is
None Of Your Business.

27. GOD ! Heals Everything.

28. However Good Or Bad A Situation Is, It
Will Change.

29. Your Job Won't Take Care Of You When
You Are Sick. Your Friends Will.
Stay In Touch.

30. Get Rid Of Anything That Isn't Useful,
Beautiful Or Joyful.

31. Envy Is A Waste Of Time. You Already
Have All You Need.

32. The Best Is Yet To Come.

33. No Matter How You Feel, Get Up, Dress
Up And Show Up.

34. Do The Right Thing!

35. Call Your Family Often.

36. Your Inner Most Is Always Happy. So
Be Happy.

37. Each Day Give Something Good To
Others.

38. Don't Over Do. Keep Your Limits.

39. When You Awake Alive In The Morning,
Thank GOD For It.

40. Please Forward This To Everyone You
Care About

प्रतिक्रिया

प्रतिक्रिया

messaje from Anjali:
[2:12pm, 4/29/2015]   

**************
परमात्मा का "शुक्र" करने से
"खुशियो" मे बदल जाती है। **************
"क्योकि
इस धरा का
इस धरा पर
सब धरा रह जायेगा।"
**************

कितनी सरल भाषा में वेद वाक्य कह दिया गया है, इसके लिए साधुवाद।  लेकिन इसहो के साथ इसके पूर्व का आधा वाक्य वेद की इस ऋचा में है।


 ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥१॥ यजुर्वेद ४०/१।। 
या सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी मौजूद है उसमे परमात्मा व्याप्त है (यानि जर्रे-जर्रे में वह समाया है) उसका ध्यान रखते हुए त्यागपूर्वक उसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ. यह धन किसका है अर्थात किसी का नही।
(this message has been published on our web site 
http://sarjanasajhamanch.blogspot.in/)
इस साईट पर पूरा उपनिषद भी साथ ही पब्लिश कर दिया है। अपने नीले अक्ष्रों को टच करते ही यह साइट खुल सकती है।

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वो जो सब के ऊपर बैठा है जो विश्व-सृजन करता है, वाही तो जोड़ता है। हम तो कोशिश भर करते है।  लेकिन कोशिश ऐसी हो की जमीं भी जोड़े और जान भी।  












OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO 

ॐ गं गणपतये नमः
नमो व्रातपतये नमो गणपतये
नमो प्रमथपतये नमस्तेस्तु लम्बोदराय 
एकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय 
श्रीवरदमूर्तये नमो नमः. 


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sarjana sajha manch sarjanamanch@gmail.com

1:59 PM (10 minutes ago)
to Ramnarayan
प्रिय आत्मन !
मेरे अपने विचार....
मेरा देश-
👉जहाँ की भूमि मेरी मातृभूमि है
👉जहाँ गंगा माँ संस्कृति और जीवन लेकर बहती है
👉गौ, गीता, गायत्री, दुर्गा और देवियाँ मातृत्व की साक्षात स्वरूप है
👉जहाँ कौशल्या, यशोदा, अंजनी जैसी माताएँ ईश्वर के  अवतरण की माध्यम बनी हो
👉जहाँ मातृत्व को पितृत्व से बडी मान्यता हो
👑वहाँ माँ और मात्रत्व के बगैर एक क्षण की भी कल्पना असंभव है,
👑वहाँ इसे एक दिन मे समेटना सागर को हथेली पर रखने जैसा है
👑वहाँ के शेष 364 दिन का क्या होगा
👑जहाँ ऋषि कहता है ----
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी--है ।
एक जलता हुआ प्रश्न सामने खडा है---हम कहाँ जा रहे है ?
रामनारायण सोनी


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प्रिय आत्मन !
मेरे अपने विचार के पिछले अंक में आपने माँ शीर्षक से संक्षेपिका पढ़ी।
जिन्होंने नहीं पढ़ी शायद मैं उनके कोप से बच गया। जिनको अच्छी लगी उनको साधुवाद, जिन्हे ठीक नहीं लगी उनका मैं गुनहगार हूँ।  मैं उनका आभारी हूँ जिन्होंने मेरे समानांतर प्रतिक्रिया दी।

आज मैं उन सभी मातृ-भक्तो को नमन करता हूँ।  कल के बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए पुनः निवेदन करता हूँ।

मेरा देश-
👉जहाँ की भूमि मेरी मातृभूमि है
उनका देश-भक्तों का अभिनन्दन जो मातृभूमि के ऋण को स्वीकार करते है।
👉जहाँ गंगा माँ संस्कृति और जीवन लेकर बहती है
उनको श्रद्धावान बेटों को नमन जो माँ गंगा को देवपगा समझते हैं उसे मैला करने और होने से बचाते हैं।
👉गौ, गीता, गायत्री, दुर्गा और देवियाँ मातृत्व की साक्षात स्वरूप है
उन गौसुतों, देवी मान के भक्तों को प्रणाम करता हूँ जो इन्हे अपनी माँ के सदृश पालक मान कर उनकी पूजा करते हैं।
👉जहाँ कौशल्या, यशोदा, अंजनी जैसी माताएँ ईश्वर के  अवतरण की माध्यम बनी हो
उन दोनों - माओं और परमात्मस्वरूप प्रभु के अवतरण का स्मरण भर कितना पावन है।
👉जहाँ मातृत्व को पितृत्व से बडी मान्यता हो
उनका शत शत वंदन जो माता-पिता को श्रवण की तरह आज्ञापालक और उनकी इच्छाओं की पूर्ती करते हों।

कल आभासी दुनिया का बहुत बड़ा त्यौहार था। हम सब किसी न किसी रूप में उसमे उछल -कूद रहे थे।  आज ज्वार थमा तो उक्त प्रतिक्रिया दे रहा हूँ। मै उन श्रवण कुमारों का आभारी हूँ और उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनके जिगर में कल की संवेदनाएं चिस्थायी हों। वर्ष के शेष ३६४ दिनों का  आज पहला दिन और शेष ३६३ दिन भी बीते कल की तरह के हो।
माता केवल जननी नहीं वह राम,कृष्णा, गौतम, गांधी ही नहीं हर आम और ख़ास को इस जगत में उंगली पकड़ कर चलना सिखाती है। 
भूल-चूक  लेनी-देनी
रामनारायण सोनी



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 प्रिय आत्मन !
स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य विख्यात है । वे कहते थे:
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”

इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञान जन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी । कदाचित् अंधकार से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था । वे चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग खोजें । स्वामीजी इस कथन के महत्त्व को कदाचित् ऐहिक जीवन के संदर्भ देखते थे ।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।। 

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)






ईशावास्योपनिषद्

ईशावास्योपनिषद् 








पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || ....
                  इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल , स्थावर , जंगम , प्राणी आदि  वस्तु है वह ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है |  उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए , क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी  धन अन्य के स्वत्व-स्वामित्व  का लालच ग्रहण नहीं करना चाहिए |
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति कर्म लिप्यते नरः ||....
                     यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ हैकर्म करने से अन्य  जीने का कोई भी  उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार   जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों मेंममत्व में लिप्त नहीं होता ,अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व  दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं  होते |
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||- ...
                     जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर इन्द्रियों आदि की शक्ति इच्छानुसार  सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकार मय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |
                   निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना  ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है ,अन्य  कोई मार्ग नहीं हैइस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं  आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है , अनुशासित है ..
                                          तू ही तू है
                                         सब कहीं है |
  सब वस्तु ईश्वर की मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत  ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
                               सब कुछ ईश्वर के ऊपर  छोडो यारो ,
                              अच्छे कर्मों का फल है अच्छा  ही होता |
 कर्मसंसार का अटूट नियम है  ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती , अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु  जो लोग अपनी आत्मा( सेल्फ कोंशियसके विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म  करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ ......अंक ....डा श्याम गुप्त ...
 कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
 ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः   - भाग दो 
                       प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया था कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है ,अतः जगत के पदार्थों को अपना ही मानकर , ममता को जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म  करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |
                       इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..
                    वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे  इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं  है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि  विश्व को धारण करता है |
तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||... ..
                         वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है  और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है  | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु  चात्मानं ततो विजुगुप्सते ||......
                             जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व  मेंही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में  परमेश्वर को  ( एवं आत्म तत्व  कोही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता , घृणा नहीं करता अतःआत्मानुरूप कर्मों के करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र  को मोहः  कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||.......
                                जब  व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त  भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत  संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को कोई मोह रहता है शोक ...वह ममत्व से परे  परमात्म-रूप ही  होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |

  पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||........
                            और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहितअव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने  प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य  अनादिकाल से  यातातथ्यतः  अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान  कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों  अनुशासन की व्यवस्था करता है |

                अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने ,इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व हैवस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर , ईश्वर आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से ,समता भाव से  कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म  में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व  मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |
कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः   - भाग चार ....

               पिछले अंक भाग तीन में उपनिषदकार .....ने विद्या-अविद्या, ज्ञान कर्म, भौतिकसंसार एवं आत्मिक जगत के समन्वय से उत्तम, उचित सत्कर्म करने  अकर्मों से दूर रहने पर प्रकाश डाला था कि वह क्यों कैसे इस ब्रह्म विद्या को  प्राप्त करे ताकि उचित सही दिशा में किये गए अपने कर्मों से समाज मानवता को प्रगति की ओर दिशा प्रदान करे |
             प्रस्तुत अंतिम भाग में मन्त्र १५ से 18 तक , बताया गया है कि उचित कर्मों कर्तव्य पालन कार्यों में सत्यता   वास्तविकता होनी चाहिए अन्यथा उस कर्म की उपयोगिता नहीं रहेगी | और इस जगत में सत्य को छिपाने के लाखों साधन बहाने हैं  | मनुष्य को उनसे सावधान रहना चाहिए |
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं |
तत्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये  ||...१५ ..
                                 सत्य का मुख सुवर्णमय पात्र से ढंका हुआ है , हे पूषन! उस सत्य धर्म के दिखाई देने के हेतु तू उस आवरण को हटा दे | अर्थात चमक धमक वाली वस्तुएं , धन, सुख-सुविधाएं आदि प्रलोभन मनुष्य को सत्य से अवगत होने नहीं देते एवं उसे  सत्य के कर्तव्य पथ से विमुख कर देते हैं और विविधि अकर्मों दुष्कर्मों में धकेल देते हैंअतः हे ईश्वर ! इस प्रलोभन का आवरण सत्यता के ऊपर से हट जाय ताकि हम सत्य पर चल सकें |
                           सत्य क्या है  सत्य की इतनी महत्ता क्यों दी जारही है | क्योंकि सत्य का ही दूसरा  नाम धर्म है  मूल कर्त्तव्य है ...... : ति : ..... अर्थात जिसमें  : अर्थात अनश्वर जीव्  एवं ति अर्थात तिरोहितकारी विनाशशील संसार ...:...दोनों का समन्वय है जिसमें ..वह सत्य |.......ब्रह्म का नाम 'सत्यम' कहा  गया है ...+ति+यम ...अर्थात  : = जीव ...ति = तिरोहित ..विनाशयोग्य संसार ...यम = अनुशासन ....अर्थात जो  जीव ब्रह्माण्ड दोनों को अनुशासन में रखने वाला है....धर्म है., कर्त्तव्य है ..ईश्वर है...ब्रह्म है वही  सत्य हैऐसी महत्वपूर्ण वस्तु आवरण रहित ही रहनी चाहिए अतः मानव सत्य के ऊपर से प्रलोभनों का आवरण हटाकर कर्तव्यपथ पर चले | तभी सारे कार्य उद्देश्यपूर्ण सफल होते हैं |
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह 
तेजो यत्ते  रूपंकल्याणतम तत्ते पश्यामि
योs सावसौ  पुरुषसो sहमस्मि ||....१६ ...
                               हे सब के पालक, अद्वितीय ,अनुशासक -न्यायकारी , प्रकाश स्वरुप ( ज्ञान दायक ) प्रजापति ( ईश्वर ) ...दुखप्रद ताप  किरणों  ( रश्मीन) को दूर करें एवं सुखप्रद तेज समूह( तेज ) को प्राप्त करा | आपका जो कल्याणकारी , मंगलमय रूप है मैं उसे  देख रहा हूँ अतः जो वह पुरुष (ईश्वर ) है वही मैं हूँ |

                   वास्तव में जब मनुष्य ईश्वर के उन गुणों------ पूषन ......सबका पोषक बिना भेद-भाव के कर्तव्य कारक, ---एकर्षि.....अपने विशेष गुणों के कारण अद्वितीय  सब में समानरूप से प्रसिद्ध सब को उपलब्ध , --- यम.... अटल न्यायकारी ,---सूर्य .. अन्तःकरण से अज्ञान का अन्धकार हटाकर  हृदय में  ज्ञान का प्रकाश  देनेवाला,---- प्रजापति ....अपने प्रजा, परिवार, देश, समाज ,राष्ट्र मानवता का रक्षक आदि .....को आत्मसात कर लेता है तो उसका सरल-सहज ,भक्त-प्रेमी हृदय अपने प्रभु का दर्शन कर लेता है एवं स्वयं ईश्वर रूपमय होजाता हैइसप्रकार  सत्य से आवरण हटने पर जब सत्य सम्मुख होता है तो ज्ञात होता है कि जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है वही मैं हूँ |
                            "  मैं वही हूँ ,
                               तू वही है | ".....

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम् |
ओम क्रतो स्मर क्लिवे स्मर कृतं स्मर  ||...१७.....
                           वायु: अर्थात शरीर में आने जाने वाला जीव ( अनिलं.=.जीव. शक्ति, प्राण, तेज, आत्मा  )  अमर है  परन्तु यह शरीर स्वयं केवल भस्म पर्यंत है अर्थात मर्त्य है , नाशवान है अतः अंत समय में हे जीव ओम का अर्थात उस ईश्वर का स्मरण कर , मन की निर्बलता , मृत्यु का भय आदि दूर करने के लिए ईश्वर का स्मरण कर एवं अपने किये हुए कर्मो का स्मरण कर |
                             उपनिषदकार का कथन है कि मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार व्यतीत करना चाहिए कि जब अमर आत्मा नश्वर शरीर के वियोग  अर्थात अपने अंतिम  समय में, वह ओम का उच्चारण अर्थात ईश्वर का ध्यान कर सकेअंतिम समय में मन में कोई  तृष्णा-- एषणा ---लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा  आदि   रहे अन्यथा उसे ईश्वर के ध्यान की बजाय पुत्रादि, धन, अधूरे कर्म आदि का ध्यान रहेगा एवं अंतिम समय कष्ट प्रदायक होगा |
 अग्ने नय सुपथा राये आस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् |
  युयोध्य स्मज्जुहुराणमेन भूयिष्ठान्तेनाम उक्तिं विधेम ||..१८...
                      हे अग्ने ..प्रकाशमय सर्वशक्तिमान, तेजस्वी ईश्वर आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले हैं अतः हमें एश्वर्य अर्थात उचित ज्ञान कर्म की प्राप्ति के अच्छे मार्ग ...सुकर्मों, सत्कर्मों पर चलाइये | हमें उलटे, टेड़े- मेडे, विकृत मार्ग पर चलने  रूपी  पाप से बचाइये | हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं |
                   वेदों के मन्त्रों -ऋचाओं का भाव  मूलतः दो रूपों  में प्राप्त होता है .... उपदेश रूप में --जहाँ मानव को अनेक शिक्षाएं दी गयी हैं ताकि वह अपने आचरण कर्म से जीवन को उच्चकोटि का बनाए; परन्तु वह अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे करे.... नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |   अंत में ईश्वर की दया का सहारा ही उचित है| पुण्य के पथ पर चलने में ईश्वर का सहारा ही आवश्यक है |मन्त्र १७ में ..'ओम क्रतोस्मर' .  उपदेश रूप में हैं  परन्तु ...'कृतं स्मर '....नियम रूप में है जीवन के अंतिम समय उसे अपने कृत्यों का स्मरण आयेगा ही एवं उन्हीं के अनुसार उसे अंत समय में दुःख या सुख का अनुभव होगा |.... उपनिषदकार ने इस अंतिम नमस्कार मन्त्र में पाप का मूल रूप उलटे मार्ग पर चलना ही कहा है | यही  संब अकर्मों, विकर्मों दुष्कर्मों की जड़ है
                             आज हम सभी उलटे मार्ग पर अग्रसर हैंस्वयं के भौतिक लाभ, अति-सुखाभिलाषा , अनावश्यक  मनोरंजन , धनागम के अनावश्यक अन्याय से प्राप्त श्रोत, अनावश्यक  धन-संचय , धन-आधारित व्यवथाएं ..स्कूल, कालेज, अस्पताल , संस्थाएं, खेल, मनोरंजन ....गली गली में गुरुओं , साधू-संतों के मठ रूपी आलीशान  महल , चेलों की फौज , वोट की राजनीति .....आदि सभी उलटे मार्ग अंतत दुष्कर्मों को प्रश्रय देते हैंजिनके कारण आज समाज में भ्रष्टाचार, लूट-खसोट , अनाचार, अत्याचार , बलात्कार आदि फैले हुए हैं |
                                    " अब तो हर ओर घना छाया धुंआ लगता है
                                      आदमी आजकल खुद  से भी खफा लगता है ||"

             निश्चय ही वेदों के अतिरिक्त विश्व के किसी भी धर्म, संस्कृति, समाज, इतिहास, दर्शन, साहित्य ,ज्ञान में इतनी अधुना वैज्ञानिक  तार्किकता के साथ मानवीय कर्म स्वयं में निष्ठा..... श्रृद्धा, भक्ति, दर्शन, आस्था, ईश्वर पर धार्मिक विश्वास के समन्वय के साथ मानव आचरण कर्तव्यों के प्रति शिक्षाएं ज्ञान का भण्डार देखने को नहीं मिलता |

                             अत: वैदिक शिक्षा ....ईशोपनिषद के मन्त्र.. आज भी व्यक्ति समाज, राष्ट्र मानवता को कर्म की वास्तविक राह दिखने में सक्षम  हैं , सजग हैं , तत्पर हैं समीचीन सन्दर्भित हैं ...आवश्यकता है इन पर चलने की |