😴आज का मौलिक चिंतन😴
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🎆देहरी का दीप🎇
आइना भी एक अद्भुत चीज है। बस सामने खड़े हो जाओ, पता चल जाएगा कि तुम कौन हो। अगर खुद को देखना है तो आइना चल कर तुम्हारे पास नहीं आएगा, तुम्हें उसके पास जाना पड़ेगा। बारीकी से देखो वह दो पहलू दिखाता है; पहला देह यष्टि और दूसरा तुम्हारा अंतरतम। लोग प्रथम पहलू में अटक कर रह जाते हैं। यह दृष्टि आपके बाह्य जगत में प्रदर्शन के लिए है ताकि तुम अजीब न लगो, सुन्दर लगो एवम खुद भी संतुष्ट हो जाओ।
दूसरा पहलू भीतर की आँख से दिखेगा। अगर देखना चाहते हो तो चेहरे पर टिक जाओ, आँखे कुछ बोलने लगेगी, भाव भंगिमाएँ कुछ बताने लगेगी। यह निश्चय करके आईने में देखो कि तुम्हें कोई और नहीं देख रहा है, तुम्हे बस केवल तुम ही देख रहे हो और केवल तुम ही दिख रहे हो। धीरे-धीरे ऐसा लगेगा कि अब आइना भी नहीं बचा केवल तुम बचे हो। बाहर की आँखे भी तटस्थ हो जाएगी तब यह समझलो कि तुम भीतर की यात्रा करने लगे हो।
एक क्षण यहीं रुक कर देखो कि जैसे। तुम भीतर और बाहर की देहरी पर खड़े हो। यह स्थान तुम्हारे जीवन के संश्लेषण का स्थान है। जो भीतर दिख रहे हो वह बाहर हो कि नहीं ? दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जो बाहर दिखना चाहते हो उसकी तैयारी भीतर है कि नही। इनमे अगर विसंगतियाँ है तो तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो। आईने में बन रहा प्रतिबिम्ब यह अंतर स्पष्ट करके बता देगा कि तुम बाहर भीतर अलग तो नहीं हो।
अगर भीतर और बाहर एक सा है तो तुम सहजयोगी हो। योगी बनने हेतु कोई विशेष प्रयोजन करने की आवश्यकता नहीं। साधना का सबसे कठिन स्तर तुमने पार कर लिया है। इसे आत्म साक्षात्कार कह सकते हो। खुद से खुद का रिश्ता यही है, याने तुम्हारे बाहर से तुम्हारे भीतर का रिश्ता। कलाकार रंगमंच पर भिखारी का चरित्र-अभिनय करना चाहे तो भीतर एक भिखारी खड़ा करना पड़ेगा जैसा भीतर बनेगा वैसा ही बाहर आवेगा, अंदर रईस रहोगे तो काम नहीं बनेगा। चित्रकार को प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण करना है तो भीतर सौंदर्य का अवतरण अनिवार्य है, हाथ तो अभिव्यक्ति का माध्यम ही है। जो भीतर लाओगे वह बाहर आवेगा ही। विकारों के ज्वालामुखी को भीतर पालोगे तो बाहर उसका लावा ही बहेगा। भीतर गुलाब का गुलदस्ता है तो बाहर खुशबू बिखरेगी ही। कौन नहीं चाहेगा खुशबू लेना, खुशबू तुम्हे भी अच्छी ही लगेगी।
अपने आप से प्रतिबद्धता स्थापित करलो और अपने भीतर बैठे सच को जियो। भीतर रुदन भरा है तो शून्य में खड़े हो जाओ उसे शरीर के रोम-रोम से, आँखों से बह जाने दो। भीतर रुक गया तो विप्लव पैदा करेगा। बाहर तो सफाई करते रहते हो पर उससे जरूरी है भीतर की सफाई। भीतर का आनन्द ही आत्मा का प्रकाश है। इसलिए बाहर-भीतर में तादात्म्य स्थापित करो। परमात्मा तुम्हारे हृदय की खिड़की से झाँक रहा है।
रामनारायण सोनी
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🎆देहरी का दीप🎇
आइना भी एक अद्भुत चीज है। बस सामने खड़े हो जाओ, पता चल जाएगा कि तुम कौन हो। अगर खुद को देखना है तो आइना चल कर तुम्हारे पास नहीं आएगा, तुम्हें उसके पास जाना पड़ेगा। बारीकी से देखो वह दो पहलू दिखाता है; पहला देह यष्टि और दूसरा तुम्हारा अंतरतम। लोग प्रथम पहलू में अटक कर रह जाते हैं। यह दृष्टि आपके बाह्य जगत में प्रदर्शन के लिए है ताकि तुम अजीब न लगो, सुन्दर लगो एवम खुद भी संतुष्ट हो जाओ।
दूसरा पहलू भीतर की आँख से दिखेगा। अगर देखना चाहते हो तो चेहरे पर टिक जाओ, आँखे कुछ बोलने लगेगी, भाव भंगिमाएँ कुछ बताने लगेगी। यह निश्चय करके आईने में देखो कि तुम्हें कोई और नहीं देख रहा है, तुम्हे बस केवल तुम ही देख रहे हो और केवल तुम ही दिख रहे हो। धीरे-धीरे ऐसा लगेगा कि अब आइना भी नहीं बचा केवल तुम बचे हो। बाहर की आँखे भी तटस्थ हो जाएगी तब यह समझलो कि तुम भीतर की यात्रा करने लगे हो।
एक क्षण यहीं रुक कर देखो कि जैसे। तुम भीतर और बाहर की देहरी पर खड़े हो। यह स्थान तुम्हारे जीवन के संश्लेषण का स्थान है। जो भीतर दिख रहे हो वह बाहर हो कि नहीं ? दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जो बाहर दिखना चाहते हो उसकी तैयारी भीतर है कि नही। इनमे अगर विसंगतियाँ है तो तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो। आईने में बन रहा प्रतिबिम्ब यह अंतर स्पष्ट करके बता देगा कि तुम बाहर भीतर अलग तो नहीं हो।
अगर भीतर और बाहर एक सा है तो तुम सहजयोगी हो। योगी बनने हेतु कोई विशेष प्रयोजन करने की आवश्यकता नहीं। साधना का सबसे कठिन स्तर तुमने पार कर लिया है। इसे आत्म साक्षात्कार कह सकते हो। खुद से खुद का रिश्ता यही है, याने तुम्हारे बाहर से तुम्हारे भीतर का रिश्ता। कलाकार रंगमंच पर भिखारी का चरित्र-अभिनय करना चाहे तो भीतर एक भिखारी खड़ा करना पड़ेगा जैसा भीतर बनेगा वैसा ही बाहर आवेगा, अंदर रईस रहोगे तो काम नहीं बनेगा। चित्रकार को प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण करना है तो भीतर सौंदर्य का अवतरण अनिवार्य है, हाथ तो अभिव्यक्ति का माध्यम ही है। जो भीतर लाओगे वह बाहर आवेगा ही। विकारों के ज्वालामुखी को भीतर पालोगे तो बाहर उसका लावा ही बहेगा। भीतर गुलाब का गुलदस्ता है तो बाहर खुशबू बिखरेगी ही। कौन नहीं चाहेगा खुशबू लेना, खुशबू तुम्हे भी अच्छी ही लगेगी।
अपने आप से प्रतिबद्धता स्थापित करलो और अपने भीतर बैठे सच को जियो। भीतर रुदन भरा है तो शून्य में खड़े हो जाओ उसे शरीर के रोम-रोम से, आँखों से बह जाने दो। भीतर रुक गया तो विप्लव पैदा करेगा। बाहर तो सफाई करते रहते हो पर उससे जरूरी है भीतर की सफाई। भीतर का आनन्द ही आत्मा का प्रकाश है। इसलिए बाहर-भीतर में तादात्म्य स्थापित करो। परमात्मा तुम्हारे हृदय की खिड़की से झाँक रहा है।
रामनारायण सोनी
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